Followers

Wednesday, June 2, 2021

प्रारब्ध


 

रात

तुम और ये कायनात

सच

एक अजीब सा

रिश्ता है

कोई

कुछ नहीं कहता।

सबकुछ

कह जाने की

व्याकुलता

गूंजती है

फिर भी

हमारे बीच।

बहुत ऐसा है

जो

बांध रहा है

हमें

कहीं किसी नजर

का कोई प्रश्नकाल।

कोई है

जो जाग रहा है

हम तीनों में

होले से

झांकता हुआ

मन

की अधखुली खिड़की

से आती

मीठी वायु में

उसके एक

पल्ले पर सिर

टिकाए।

हां

हम सभी चिंतित हैं

रिश्तों से रिसते

भरोसे पर

सूखते हरेपन पर

मौन की

चीख पर

दांत कटकटाते

अकेलेपन पर।

हां

हम

खुश हैं

सबकुछ समाप्त होने के बीच

तिनके जैसे शेष

उस सूखे पेड़ पर झूलते

भरोसे पर।

हां

हम उदास हैं

निराश नहीं हैं

क्योंकि

हम, तुम और ये कायनात

ही सच है

एक प्रारब्ध है।

 

फोटोग्राफ-विशाल गिन्नारे


16 comments:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 जून 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपका आदरणीय रवीन्द्र जी..

      Delete
  2. प्रारब्ध से कोई नहीं बच पाया आजतक, शायद जो घट रहा है वह सामूहिक प्रारब्ध ही हो

    ReplyDelete
  3. "हम सभी चिंतित हैं

    रिश्तों से रिसते

    भरोसे पर

    सूखते हरेपन पर

    मौन की

    चीख पर

    दांत कटकटाते

    अकेलेपन पर।" - किसी विषय पर चिंतित होना ही , किसी सकारात्मक परिवर्त्तन की पहली सीढ़ी है .. शायद ...

    ReplyDelete
  4. अपने प्रारब्ध को लौटती रचना ...
    गहरा अनुभव ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपका आदरणीय नासवा जी।

      Delete
  5. हम उदास हैं

    निराश नहीं हैं

    क्योंकि

    हम, तुम और ये कायनात

    ही सच है

    सुन्दर रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपका आदरणीय मनोज जी।

      Delete
  6. रिश्तों से रिसते
    भरोसे पर
    सूखते हरेपन पर
    मौन की
    चीख पर
    दांत कटकटाते...

    हृदयस्पर्शी रचना... बेहतरीन...🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभार आपका मैम।

      Delete
  7. मुझे यह रचना बहुत ही रहस्यमयी लगी। मुझे लगता है इनमें कई गहरी भावनाओं की बुनाई है जिसे मैं मुझ जैसा साधारण रचनाकार उन भावों को समेटने में असमर्थ महसूस कर रहा हूँ।

    "...
    हम सभी चिंतित हैं
    रिश्तों से रिसते
    भरोसे पर
    सूखते हरेपन पर
    मौन की
    चीख पर
    दांत कटकटाते
    अकेलेपन पर।
    ..."
    ..........- इन पंक्तियों से आपने जो बातें कही है आपने, इनका मैं हर कुछ दिनों में साक्षी हो जाता हूँ। इसका केवल एक कारण मुझे लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति दिन-प्रतिदिन स्वयं को स्वयं तक सीमित कर रहे है इसलिए रिश्तों ऐसा बदलाव देखने को मिल रहा है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सच कहा आपने आदरणीय प्रकाश जी...व्यक्ति ने अपने आप को अपने आप तक सीमित रख लिया है जबकि यहां समग्र होने की आवश्यकता थी...बदलना होगा अपने आप को और अपनी उन सभी आदतों को...। बहुत आभार आपका।

      Delete

  8. हम उदास हैं

    निराश नहीं हैं

    क्योंकि

    हम, तुम और ये कायनात

    ही सच है

    एक प्रारब्ध है।.. बिलकुल सच कहा आपने, सुन्दर भावों का सृजन ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभारी हूं आपका जिज्ञासा जी हमेशा की तरह गहन प्रतिक्रिया देने के लिए...।

      Delete

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...