नदी
कह रही है
प्राण हैं
उसमें
जो तुम्हारे
प्राण की भांति ही
जरूरी हैं।
नदी
सवाल करती है
क्यों
मानवीयता का
चेहरा
दरक रहा है।
नदी के शरीर की
ऊपरी सतह
की दरकन
अमानवीय
आदमियत है।
गहरी
दरकन
भरोसे और रिश्ते
की चटख
का
परिणाम है।
नदी किनारे
अब
अक्सर सूखा
बैठा मिलता है
नदी
उसे भी
साथ लेकर
चलती है
समझाती है
मानवीय भरोसे
के
पुराने सबक।
नदी चाहती है
उसके
प्राण
की वेदना
पर
बात होनी चाहिए
पानीदार आंखों
की
सूखती
पंचायतों के बीच...।
"सार्थक संदेश "देती रचना आपकी,बहस होनी चाहिए अब ना हुआ तो बहुत देर हो जायेगी ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका कामिनी जी...।
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ReplyDeleteबात होनी चाहिए पानी दर आँखों की सूखती पंचायतों के बीच ।
ReplyDeleteकितनी गहरी बात ..... पानीदार आँख वाले ही तो समझ पाएँगे नदी के मन की बात ।
मन मस्तिष्क को झिंझोड़ाती हुई रचना ।
जी बहुत आभारी हूं आपका
Deleteजी बहुत आभारी हूं आपका
ReplyDeleteबहुत सुंदर संदेश देती सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका अनुराधा जी।
Deleteनदी चाहती है
ReplyDeleteउसके
प्राण
की वेदना
पर
बात होनी चाहिए
पानीदार आंखों
की
सूखती
पंचायतों के बीच...।
अनुपम अभिव्यक्ति संदीप जी ! एक संवेदित हृदय की करुण चीत्कार जो नदी के माध्यम से फूट कर सम्पूर्ण मानवीय चेतना को झकझोरने के लिए सक्षम है !
जी सुधा जी बहुत आभारी हूं आपका, ये दर्द हममें से हरेक को होना चाहिए क्योंकि ये दर्द ही हमें प्रकृति के उस रिश्ते के करीब ले जाएगा जिसे हम कभी पूरे मन से जीया करते थे।
Deleteअकेली मौन बहती
ReplyDeleteनदी की पीड़ा चुनती मछलियाँ
बहेलियों का आसान शिकार हो जाती हैं
कहानियों में अपने योगदान के लिए
अमर हो जाती हैं नदियाँ
और मछलियाँ मानवता की हाथों में
खूबसूरत नारों सी सजी तख्तियां बन जाती हैं।
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गहन चिंतन से उपजी
बेहतरीन अभिव्यक्ति सर।
प्रणाम
सादर।
बहुत बहुत आभार आपका श्वेता जी...। सच में हमारे अंदर प्रकृति उतनी ही खुशी से जीती है जितने कि हम उसमें जीते हैं, बस हमने उसे सोचना बंद कर दिया है, जीना बंद कर दिया है, महसूस करना बंद कर दिया है। देखियेगा ये मन के सूखे में ही कहीं उम्मीद का पौधा अवश्य पनपेगा अंकुरित होगा। आभार आपका।
ReplyDeleteनदी ही क्यों, ये समस्त धरा, पहाड़, बूढ़े जवान वृक्ष, दूषित होते हवा और जल सब प्रश्न कर रहे हैं , इस वीवैभव का क्या किया जाए, जो सबका अस्तित्व मिटाने पर उतारू है। पन्ना का जंगल जिसमें दो लाख़ पुराने पेड़ हैं वो प्रश्न पूछ रहें हैं कि जिस भूमि से पैदा होकर उन्होंने हज़रों लोगों का पेट भरा, आजीविका दी, फल फूल प्रदान किया हवा को शुद्ध कर इन्सान की सांसों का मोल बढ़ाया , आज उसकी कीमत उसी भूमि में दबे कुछ करोड़ के हीरों से अधिक कैसे हो गई। कोई जंगल के योगदान का हिसाब क्यों नहीं लगाता? जंगल सदियों से जो दे रहे हैं उनका मूल्यांकन किया जाए। हीरों से पेट नहीं भरता! मानव मन को नाजाने दुलारते , पोषते इन वृक्षों का कोई सानी कहां!! संदीप जी जैसे अलख जगाते चिंतकों की बात सुननी होगी। जन आंदोलनों का हिस्सा बनना होगा तभी पर्यावरण बच सकता है। नहीं तो निरंकुश सरकारें पत्थर सरीखे हीरो के बदले अनमोल थाती की कुर्बानी दे देंगी। मर्मांतक रचना संदीप जी।
ReplyDeleteबेहद जरूरी विषय पर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया...। आपका लेखन और बेहतर की ओर ले जाने की भावना आपकी आंतरिक गहनता की परिचायक है...। आपने हिम्मत भी दी, प्रेरणा भी और सभी के बीच एक विषय पर कार्य करने का संदेश भी दिया है...। आभार आपका...। प्रकृति पर स्वतः ही प्रयास करने वाली प्रवृत्ति का बीजारोपण जरूरी है... यही हमें श्रेष्ठ की ओर ले जाएगा...। आभार... एक गहन प्रतिक्रिया के लिए...।
ReplyDeleteआपके उद्देश्यों की सफलता की कामना करती हूं संदीप जी।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका रेणु जी।
Delete"ऊपरी सतह की दरकन और गहरी दरकन" की स्थिति बिलकुल वैसी ही जैसा आपने लिखा है। इसपर सभी एकमत होंगे।
ReplyDeleteवर्तमान में अधिकतम लोगों के लिए गैरजरूरी जरूरी बन गया है और जरूरी की विषयों की पुरजोर अनदेखी बढ़ गयी है।
मैंने हाल ही में गंगा नदी में शवों के बहाए जाने पर उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में अखबार पढ़ा...तब मन विचलित हो गया। कई वर्षों से गंगा नदी की स्थिति सुधारने में कई सरकारें योजनाएं बनाती रही है...पता नहीं इसपर कब पूर्ण विराम लगेगा और हमसब संतुष्ट होंगे की गंगा नदी अपनी पूर्व स्थिति में आ गयी है। पर स्थिति जस का तस है...अब तो गंगा नदी की सफाई के खबर से चिढ़ सी होने लगी है।
खैर आपने बहुत ही मार्मिक, सार्थक एवं सत्य रचना लिखा है।
सार्थक रचना
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