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Friday, June 4, 2021

नदी सवाल करती है











नदी

कह रही है

प्राण हैं

उसमें

जो तुम्हारे

प्राण की भांति ही

जरूरी हैं।

नदी

सवाल करती है

क्यों

मानवीयता का

चेहरा

दरक रहा है।

नदी के शरीर की

ऊपरी सतह

की दरकन

अमानवीय

आदमियत है।

गहरी

दरकन

भरोसे और रिश्ते

की चटख

का

परिणाम है।

नदी किनारे

अब

अक्सर सूखा

बैठा मिलता है

नदी

उसे भी

साथ लेकर

चलती है

समझाती है

मानवीय भरोसे

के

पुराने सबक।

नदी चाहती है

उसके

प्राण

की वेदना

पर

बात होनी चाहिए

पानीदार आंखों

की

सूखती

पंचायतों के बीच...। 

18 comments:

  1. "सार्थक संदेश "देती रचना आपकी,बहस होनी चाहिए अब ना हुआ तो बहुत देर हो जायेगी ,सादर नमन आपको

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  2. जी बहुत आभारी हूं आपका कामिनी जी...।

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. बात होनी चाहिए पानी दर आँखों की सूखती पंचायतों के बीच ।
    कितनी गहरी बात ..... पानीदार आँख वाले ही तो समझ पाएँगे नदी के मन की बात ।
    मन मस्तिष्क को झिंझोड़ाती हुई रचना ।

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    Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका

      Delete
  5. जी बहुत आभारी हूं आपका

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  6. बहुत सुंदर संदेश देती सार्थक अभिव्यक्ति।

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    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अनुराधा जी।

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  7. नदी चाहती है

    उसके

    प्राण

    की वेदना

    पर

    बात होनी चाहिए

    पानीदार आंखों

    की

    सूखती

    पंचायतों के बीच...।
    अनुपम अभिव्यक्ति संदीप जी ! एक संवेदित हृदय की करुण चीत्कार जो नदी के माध्यम से फूट कर सम्पूर्ण मानवीय चेतना को झकझोरने के लिए सक्षम है !

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    Replies
    1. जी सुधा जी बहुत आभारी हूं आपका, ये दर्द हममें से हरेक को होना चाहिए क्योंकि ये दर्द ही हमें प्रकृति के उस रिश्ते के करीब ले जाएगा जिसे हम कभी पूरे मन से जीया करते थे।

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  8. अकेली मौन बहती
    नदी की पीड़ा चुनती मछलियाँ
    बहेलियों का आसान शिकार हो जाती हैं
    कहानियों में अपने योगदान के लिए
    अमर हो जाती हैं नदियाँ
    और मछलियाँ मानवता की हाथों में
    खूबसूरत नारों सी सजी तख्तियां बन जाती हैं।
    ------
    गहन चिंतन से उपजी
    बेहतरीन अभिव्यक्ति सर।

    प्रणाम
    सादर।

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  9. बहुत बहुत आभार आपका श्वेता जी...। सच में हमारे अंदर प्रकृति उतनी ही खुशी से जीती है जितने कि हम उसमें जीते हैं, बस हमने उसे सोचना बंद कर दिया है, जीना बंद कर दिया है, महसूस करना बंद कर दिया है। देखियेगा ये मन के सूखे में ही कहीं उम्मीद का पौधा अवश्य पनपेगा अंकुरित होगा। आभार आपका।

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  10. नदी ही क्यों, ये समस्त धरा, पहाड़, बूढ़े जवान वृक्ष, दूषित होते हवा और जल सब प्रश्न कर रहे हैं , इस वीवैभव का क्या किया जाए, जो सबका अस्तित्व मिटाने पर उतारू है। पन्ना का जंगल जिसमें दो लाख़ पुराने पेड़ हैं वो प्रश्न पूछ रहें हैं कि जिस भूमि से पैदा होकर उन्होंने हज़रों लोगों का पेट भरा, आजीविका दी, फल फूल प्रदान किया हवा को शुद्ध कर इन्सान की सांसों का मोल बढ़ाया , आज उसकी कीमत उसी भूमि में दबे कुछ करोड़ के हीरों से अधिक कैसे हो गई। कोई जंगल के योगदान का हिसाब क्यों नहीं लगाता? जंगल सदियों से जो दे रहे हैं उनका मूल्यांकन किया जाए। हीरों से पेट नहीं भरता! मानव मन को नाजाने दुलारते , पोषते इन वृक्षों का कोई सानी कहां!! संदीप जी जैसे अलख जगाते चिंतकों की बात सुननी होगी। जन आंदोलनों का हिस्सा बनना होगा तभी पर्यावरण बच सकता है। नहीं तो निरंकुश सरकारें पत्थर सरीखे हीरो के बदले अनमोल थाती की कुर्बानी दे देंगी। मर्मांतक रचना संदीप जी।

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  11. बेहद जरूरी विषय पर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया...। आपका लेखन और बेहतर की ओर ले जाने की भावना आपकी आंतरिक गहनता की परिचायक है...। आपने हिम्मत भी दी, प्रेरणा भी और सभी के बीच एक विषय पर कार्य करने का संदेश भी दिया है...। आभार आपका...। प्रकृति पर स्वतः ही प्रयास करने वाली प्रवृत्ति का बीजारोपण जरूरी है... यही हमें श्रेष्ठ की ओर ले जाएगा...। आभार... एक गहन प्रतिक्रिया के लिए...।

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  12. आपके उद्देश्यों की सफलता की कामना करती हूं संदीप जी।

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    Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका रेणु जी।

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  13. "ऊपरी सतह की दरकन और गहरी दरकन" की स्थिति बिलकुल वैसी ही जैसा आपने लिखा है। इसपर सभी एकमत होंगे।
    वर्तमान में अधिकतम लोगों के लिए गैरजरूरी जरूरी बन गया है और जरूरी की विषयों की पुरजोर अनदेखी बढ़ गयी है।
    मैंने हाल ही में गंगा नदी में शवों के बहाए जाने पर उत्पन्न परिस्थितियों के बारे में अखबार पढ़ा...तब मन विचलित हो गया। कई वर्षों से गंगा नदी की स्थिति सुधारने में कई सरकारें योजनाएं बनाती रही है...पता नहीं इसपर कब पूर्ण विराम लगेगा और हमसब संतुष्ट होंगे की गंगा नदी अपनी पूर्व स्थिति में आ गयी है। पर स्थिति जस का तस है...अब तो गंगा नदी की सफाई के खबर से चिढ़ सी होने लगी है।
    खैर आपने बहुत ही मार्मिक, सार्थक एवं सत्य रचना लिखा है।

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