आज भी याद है
पिता का साथ
उनकी सख्त
और
जिम्मेदार आंखें।
उनका गुस्सैल होकर
हमें समझदार बनाना
और
मां के साथ
अकेले में
इसी बात पर खूब मुस्कुराना।
पिता नहीं हैं
लेकिन
उनकी दवा का थैला
लंबे समय तक
उनकी चप्पलें थीं
देखा करता था उन्हें।
उनका बिस्तर
उनका वह छोटा सा
केवल
उन्हें हवा देने वाला
हाथ का पंखा
वह
खिड़की
वह जगह
जहां अक्सर
बैठकर वह
गुनगुना लिया करते थे
कुछ बहुत पुराने गीत।
थके नहीं थे वह कभी
हारे भी नहीं
गलत के आगे झुके भी नहीं।
याद है
उम्र के बढ़ने के साथ
वह
अक्सर मुस्करा दिया करते थे
हमें
संबल बंधाया करते थे
हमें
जीवन को उमंग से जीने का सच
सिखाया करते थे।
सच
वह थे
तब सबकुछ कितना आसान था
लगता था
आसमान और मौसम
हमारी अपनी है
हवा
और
मौसम
सब अपने हैं।
आज सोचता हूं
खुशियां कैसे संजोते होंगे वह
हमारे लिए
कहां से लाते थे वह
इतना
संबंल
इतनी जीवटता
कहां और कैसे मिलता था
उन्हें इतना आत्मबल।
अब जब से
वह नहीं हैं
देख रहा हूं
न मौसम अपना सा लगता है
न
खुशियों में खनक है
न
अपनी जमीन का अहसास है
न ही अपना कोई आसमान।
अब अक्सर सोचता हूं
पिता के सबक
उनकी मुस्कान
उनका सुधारने वाला गुस्सा
उनकी समझाइश।
यह सच है
कि
बहुत गहरा सन्नाटा है
जब से पिता नही है
पिता
के बाद
आप
इस दुनिया में दोबारा जन्म लेते हो।
पिता
इस दुनिया में
मनचाही चिट्ठी की तरह हैं
जिसमें
वही लिखा होता है
जो हमें पढ़ना पसंद होता है।
पिता
उस पीपल के वृक्ष की तरह हैं
जिसे अपने आप को
स्थापित करने में
झेलना पड़ा होगा बहुत संघर्ष।
पिता
को यदि
शब्दों में कहना है
तो वह
घर हैं, परिवार का चेहरा होते हैं
मां की आन
परिवार की जान
हमारे बचपन की खुशियां
हमारी जिद
हमारे सपनों के अंकुरण की
जमीन ...।
सच पिता हैं
तो
सबकुछ बहुत आसान है
सरल है
बिना उनके
जीवन एक
सूखी और धूलभरी पगडंडी है।
बहुत अच्छी कविता रची है आपने शर्मा जी। कभी मैंने एक बाल पत्रिका में एक पाठक का प्रश्न पढ़ा था - अगर मां के पांव के नीचे जन्नत है तो पिता के पांव के नीचे क्या है? जवाब था - मां का पांव।
ReplyDeleteबहुत ही गहरी और प्यारी बात कही आपने...। आदरणीय जितेंद्र जु...। आभार आपका
ReplyDeleteपिता
ReplyDeleteउस पीपल के वृक्ष की तरह हैं
जिसे अपने आप को
स्थापित करने में
झेलना पड़ा होगा बहुत संघर्ष।
पिता का स्नेह नारियल सरीखा ..., दिखने मे कठोर मगर फल मीठा और स्वास्थ्यप्रद । बहुत सुन्दर सृजन संदीप जी ।
बहुत बहुत आभारी हूं आपका मीना जी। कुछ विषय केवल मन से आरंभ होते हैं और मन तक पहुंचकर ही पूर्णता पाते हैं।
Deleteबहुत ही सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभारी हूं आपका
Deleteपिता/इस दुनिया में //मनचाही चिट्ठी की तरह हैं
ReplyDeleteजिसमें वही लिखा होता है//जो हमें पढ़ना पसंद होता है।
सच है पिता रूपी चिट्ठी पढ़ते पढ़ते हम उन्हीं के प्रतिरूप बन जाते हैं | बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना संदीप जी | पिता के ना रहने पर उनकी यादें अनमोल पूंजी की तरह मन के आँगन में महकती हैं | एक हमारी पीढ़ी के पिता व्यक्तिव की सादगी और विचारों की ऊँचाई से परिपूर्ण थे सादी चप्पल पहनने वाले , हाथ के पंखे से हवा करने वाले और पुराने फ़िल्मी गीत गुनगुनाने वाले |
बहुत आभारी हूं आपका रेणु जी।
Deleteपिता के प्रति सुंदर कोमल भावनाओं को व्यक्त करती सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत आभारी हूं आपका
Deleteवाह,सुंदर सृजन, मैंने भी पिता का ऐसा ही साथ पाया है,और आज भी मिल रहा है,आपके पिताजी के द्वारा मिले अनमोल अनुभवों को मेरा सादर नमन।
ReplyDeleteआभार आपका जिज्ञासा जी...।
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