मैं
तुम्हें
इसी तरह देखता हूँ
मैं
तुम्हें
प्रकृति में पानी की
उम्मीद की तरह देखता हूँ।
हम और तुम
क्या हैं
कुछ भी तो नहीं
केवल
उम्मीद की
बूंदों पर
उम्र रखकर
जी जाते हैं
अपने आप को।
फोटोग्राफ भी मेरा ही है... फोटोग्राफ देख यह कविता सृजित हो गई...।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
वाह! सुंदर सृजन, उम्मीद की बूँदें ही जीवन को पोषती हैं
ReplyDeleteआभार आपका अनीता जी।
Deleteछायाचित्र भी अच्छा है, अभिव्यक्ति भी।
ReplyDeleteआभार आपका जितेंद्र जी।
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteआभार आपका गजेंद्र जी।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 04 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आपका यशोदा जी..। आपके नेह को प्रणाम...।
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