Followers

Sunday, August 29, 2021

सच जानता हूं

तुम्हें सच देखना आता है

सच 

कहना क्यों नहीं आता।

तुम सच जानते हो

मानते नहीं।

तुम्हें सच की चीख का अंदाजा है

फिर भी चुप हो ही जाते हो।

जानते हो तुम 

कि

सच और सच 

के बीच

एक मजबूरी का जंगल है

उसमें

हजार बार

घुटते हो तुम 

अपने प्रेरणाशून्य जम़ीर के साथ।

जानता हूं 

सच 

अब आदमखोर जिद के सख्त जबड़ों में दबा

मेमना है

जिसे 

जंगल में घुमाया जा रहा है

अपनी सनक को साबित करने की खातिर। 

एक दिन 

जबड़े से छिटककर सच

गिरेगा किसी खोह में

जहां 

दोबारा 

गढ़ेगा 

कुछ आदिमानव

जो

सच्चे हों

खरे हों

बेशक

पढ़ें लिखे ना हों...।

 

26 comments:

  1. सच बोलना एक बार कठिन होता है लेकिन फिर उलझनों से बचा रहता है ।। काश सच बचा रहे ।

    गहन भाव ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  2. सच्चाई स्वयं को स्थापित कर ही लेती है|गहन रचना !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अनुपमा जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  3. सच का
    एक से दूसरे तक
    पहुँचने के मध्य
    दूरी चाहे शून्य भी हो तो
    परिवर्तित हो जाता है
    वास्तविक स्वरूप।
    ----
    विचार मंथन से उत्पन्न गहन अभिव्यक्ति सर।
    सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका श्वेता जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  4. आपकी लिखी रचना सोमवार 30 ,अगस्त 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका संगीता जी....। रचना का सम्मान देने के लिए आभारी हूं।

      Delete
  5. शायद सत्य की परिभाषा बदल गयी है
    उम्दा लेखन

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका विभा जी।

      Delete
  6. सच और सच

    के बीच

    एक मजबूरी का जंगल है

    उसमें

    हजार बार

    घुटते हो तुम

    अपने प्रेरणाशून्य जम़ीर के साथ।

    सच की छटपटाहट जब मौन ही चीखती है तो कुछ ऐसी रचना जन्म लेती है ...उत्कृष्ट लेखन

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका सीमा जी। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  7. सच की वैचारिक क्रांति न मानने पर भी होगी ही । समय चाहे जो हो । अत्यन्त गहन सृजन ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अमृता जी....। रचना का सम्मान देने के लिए आभारी हूं।

      Delete
  8. आदरणीय सर, एक अत्यंत सशक्त आत्मा झकझोर देने वाली रचना। सच ही है कि आज हर एक आम -आदमी सच जानता तो है पर कहने से डरता है, और फिर यह भी तो है कि समाज में फैले झूठ के हम सभी भागीदार हैं। बहुत ही सशक्त प्रहार आम आदमी की विवशता पर और समाज में फैली विकृतियों पर। हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अनंता जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  9. सच को जबड़े में जकड़ा है या फिर सच किसी खोह में जा गिरे पर सच की भी अपनी ताकत होती है देर से ही सही सच को बाहर आना ही होता है....सच को छुपाने वाले और सच को नजरअंदाज करने वाले सच के आगे नहीं टिक पायेंगे।बहुत सुंदर विचारणीय सृजन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका सुधा जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  10. माना सच की ताकत है पर जबड़े में फंस के सच अनेकों बार अपनी मौत मर जाता है ... यही सत्य की किस्मत है ...
    प्रभावी रचना ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका दिगम्बर नासवा जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  11. सच तो सच ही होता है। लेकिन सच को पचाना इतना आसान नही होता इसलिए इंसान झुठका सहारा लेता है। बहुत सुंदर रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका ज्योति जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  12. समाज में हर और व्याप्त झूठ और फरेब पर सशक्त प्रहार कर मनुष्य को झकझोरती अनुपम अभिव्यक्ति ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete
  13. सच को जानकर भी जो चुप रह जाते हैं समाज उन्हें कभी माफ़ नहीं करता, सच एक न एक दिन सामने आता ही है

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अनीता जी...। सच जानने और समझने वालों को अब खामोश नहीं रहना चाहिए।

      Delete

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...