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शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

फटे लिबास में तुम्हारी हंसी


 काश मैं 

इस बाज़ार से

कुछ 

बचपन बचा पाता...।

काश 

मुस्कान का भी 

कोई 

कारोबार खोज पाता।

काश 

तुम्हारे लिए

सजा पाता कोई

रंगों भरा आसमान।

जानता हूँ

कि 

फटे लिबास में

तुम्हारी हंसी

मुझे 

चेताती है हर बार

दिखाती है

हमारे समाज को आईना।

तुम्हारी मुस्कान निश्छल है

लेकिन 

तुम्हारी भूख 

हमारे समाज के चेहरे पर तमाचा। 

मैं जानता हूँ

तुम सशक्त हो

क्योंकि तुम

भूख की पीठ पर बैठ

मुस्कुरा रहे हो...। 

हमारी दुनिया में 

बचपन 

अब 

तुम्हारी तरह कहाँ जीया जा सकता है।

मैं जानता हूँ

तुम्हारी दुनिया में 

प्यार एक गुब्बारे की तरह है

और 

हमारे यहाँ बचपन 

उम्र के गुब्बारे की तरह 

होकर 

गुबार सा हो जाता है।

14 टिप्‍पणियां:

  1. क्योंकि बचपन नहीं जानता अमीरी और गरीबी का भेद

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-10-21) को "गीत-ग़ज़लों का तराना, गा रही दीपावली" (चर्चा अंक4233) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार आपका कामिनी जी। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद...।

      हटाएं
  3. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 01 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही गहन हृदय को आलोडित करती रचना।
    मर्मस्पर्शी सृजन।

    जवाब देंहटाएं

अभिव्यक्ति

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