ये चेहरे
रोक देते हैं
हमारी दौड़।
भागते से हम
ठिठक जाते हैं
इन्हें सामने पाकर।
सच
क्या ये आईना हैं
हमारे खुरदुरे समाज
जिसमें हमेशा ही
बिगड़ी तस्वीर ही
नज़र आती है...।
भागती जिंदगी की पीठ पर
कुछ
उदास और थके चेहरों का समाज
चीख रहा है
रोटी के लिए।
भूख यहां
भूगोल और विज्ञान नहीं
गणित है।
चेहरों के बीच
दरकती मानवीयता कहीं ठौर पाने
भटक रही है।
इनकी चीख
हमारे जम़ीर पर
एक पल की दस्तक है
ग्रीन
सिग्नल होते ही
विचारों और ऐसे समाज को रौंद
हम बढ़ जाते हैं
अपनी
दुनिया में
जहां
पीठ पर होते हैं
जोड़ घटाने
और
पैरों तले कुचलने की साजिश।
समृद्ध समाज मदहोश है
और
भाग रहा है
अपने आप से
बहुत दूर
क्योंकि
ये सच्चे चेहरे
उन्हें डराते हैं...।
इंसानी मानसिकता का यथार्थ चित्रण ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteयथार्थ स्थिति को बयां करती हुई बहुत ही शानदार रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteमार्मिक कटु सत्य
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteशानदार रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteयथार्थ का शानदार चित्रण
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
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