इस बाज़ार से
कुछ
बचपन बचा पाता...।
काश
मुस्कान का भी
कोई
कारोबार खोज पाता।
काश
तुम्हारे लिए
सजा पाता कोई
रंगों भरा आसमान।
जानता हूँ
कि
फटे लिबास में
तुम्हारी हंसी
मुझे
चेताती है हर बार
दिखाती है
हमारे समाज को आईना।
तुम्हारी मुस्कान निश्छल है
लेकिन
तुम्हारी भूख
हमारे समाज के चेहरे पर तमाचा।
मैं जानता हूँ
तुम सशक्त हो
क्योंकि तुम
भूख की पीठ पर बैठ
मुस्कुरा रहे हो...।
हमारी दुनिया में
बचपन
अब
तुम्हारी तरह कहाँ जीया जा सकता है।
मैं जानता हूँ
तुम्हारी दुनिया में
प्यार एक गुब्बारे की तरह है
और
हमारे यहाँ बचपन
उम्र के गुब्बारे की तरह
होकर
गुबार सा हो जाता है।
क्योंकि बचपन नहीं जानता अमीरी और गरीबी का भेद
ReplyDeleteआभार आपका अनीता जी..।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-10-21) को "गीत-ग़ज़लों का तराना, गा रही दीपावली" (चर्चा अंक4233) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आभार आपका कामिनी जी...।
Deleteआभार आपका कामिनी जी। मेरी रचना को शामिल करने के लिए साधुवाद...।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 01 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार आपका यशोदा जी..।
Deleteरचना को शामिल करने के लिए साधुवाद..।
Deleteवाह
ReplyDeleteआभार आपका ओंकार जी...।
Deleteबहुत ही गहन हृदय को आलोडित करती रचना।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सृजन।
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
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