तुम्हें कुछ फूल देना चाहता हूँ
जानता हूँ
अगली सदी
बिना फूलों की होगी।
इन्हें रख लेना
डायरी के
पन्नों के बीच
उम्र के पीलेपन
के साथ
संभव है
इन्हें भी
जीना पड़े
एक सदी का सूखापन।
सहेज लेना इन्हें
कम से कम
पीढ़ियां
देख तो सकेंगी
इन्हें छूकर
और
शायद इसी तरह बच सके
इनकी खुशबू
हमारा
फूलों से प्रेम
और
फूलों
के शरीर...।
जानता हूँ
किसी को फर्क नहीं पड़ता
कि
क्या कुछ खो चुके हैं हम।
फर्क पड़ेगा
जब हम
एक सूखे संसार में
रेतीले जिस्म
और
सूखी आत्मा के बीच
हम
नहीं खोज पाएंगे
कोई पक्षी
कोई फूल
कोई जीवन
और
कोई उम्मीद...।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (11 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय रवींद्र जी....।
ReplyDeleteकिसी को फर्क नहीं पड़ता
ReplyDeleteकि
क्या कुछ खो चुके हैं हम।
सबसे ज्यादा दुख और दुर्भाग्यपूर्ण तो यही है इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
बेहतरीन व सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteहम
ReplyDeleteनहीं खोज पाएंगे
कोई पक्षी
कोई फूल
कोई जीवन
और
कोई उम्मीद...।..सच्चाई से रूबरू कराती सार्थक रचना ।
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteअगर वे नहीं बचेंगे तो उनसे पहले तो हम ही नहीं बचेंगे, कौन खोजेगा और किसको
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteअद्भुत सत्य, एक सिहरन उत्पन्न कर गई आपकी रचना ।
ReplyDeleteसब समझने लगे हैं प्रकृति का रूप कितना भयावह होगा पर .…कोई भी कहां समझा है ।
अभिनव सृजन।
जी बहुत बहुत आभार आपका
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