कदम
कुछ
कदम
लौटना चाहते हैं
अपने पदचिन्हों पर।
उस मंजिल के इर्द गिर्द
जहां किसी ठौर
बचपन
छोड़ आए हैं।
रेत छोड़ आए हैं
जिसमें कोई
घरोंदा
था
जिसमें
रेत की दीवारों के बीच
किसी कील पर
उलझा सा रह गया
समय
उस बचपन का।
छोड़ आए हैं
जिस डगर
बचपन के मित्र
मस्ती
अल्हड़पन
और
समझदारी के पहले की
अधपकी जमीन।
छोड़ आए हैं
किताबें और बस्ता
फटे जुर्राब
जिन्हें
अक्सर
तुरपाई से
सी दिया करते थे।
छोड़ आए हैं
बहुत सा छूट गया है
स्कूल की दीवारें
गुरूजी की घूरती आंखें
और
एक उम्र...।
अब बचपन
चांद पर किसी कोने में बसे
घर सा है
जिसे
देख सकते हैं
अतीत में
छू नहीं सकते वर्तमान में।
पदचिन्हों पर
अब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(28-11-21) को वृद्धावस्था" ( चर्चा अंक 4262) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
आभार आपका कामिनी जी...।
ReplyDeleteअतीत में
ReplyDeleteछू नहीं सकते वर्तमान में।
पदचिन्हों पर
अब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...। जीवन संदर्भ को परिभाषित करती सटीक अभिव्यक्ति ।
जी बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteउम्दा रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत ख़ूब !
ReplyDeleteगुलज़ार का गीत - 'छोड़ आए हम, वो गलियां'
याद आ गया.
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteभावपूर्ण सृजन
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteउम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteपदचिन्हों पर
ReplyDeleteअब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में
पिछले दिनों की यादें ही काफी हैं
बहुत ही भावपूर्ण सृजन
वाह!!!
जी बहुत बहुत आभार आपका
ReplyDeleteपदचिन्हों पर
ReplyDeleteअब
बिवाइयों वाले पैर रखने से डर लगता है
कहीं
वे पिछले दिन
समा न जाएं रेत होकर
बिवाइयों में...गहनता लिए हृदयस्पर्शी सृजन।
सादर
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteउस जगह इंसान लौटता है कई बार पर मन ही मन ...
ReplyDeleteसमय का पहिया हमेशा आगे ही रहता है पीछे नहीं लौटता ... सुन्दर रचना ...
जी बहुत बहुत आभार आपका
Delete