कदंब मन में कहीं
उग आया है
उसके अहसास हमें
खींच रहे हैं अपनी ओर।
कदंब का पेड़
अब भी रीता है
इन गर्बीले फलों के साथ
इंतज़ार में
तुम्हारे कान्हा।
फिर बसा दीजिए ना
वृंदावन
फिर छेड़ दीजिए ना
बांसुरी की तान
देखिए अब भी
गोपियां वहीं आपका इंतज़ार कर रही हैं
और रोज
बुहार रही हैं
कदंब का ठौर।
आभार श्वेता जी...।
ReplyDeleteकदम्ब के माध्यम से कान्हा की याद आना स्वाभाविक है, दोनों अद्भुत हैं
ReplyDeleteआभार आपका अनीता जी।
Deleteबहुत सुंदर भाव।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका...। अवश्य...।
ReplyDeleteआभार अनीता जी।
ReplyDeleteकदंब का फल पहली बार देखा । सुंदर आह्वान ।
ReplyDeleteजी बहुत आभार...। मुरादाबाद में बहुत पेड़ हैं...।
Deleteसच है...कभी-कभी मन तो चाहता है, बीते पल फिर लौट आये।
ReplyDeleteसुन्दर रचना है साहब!!