सर्द दिनों में
मन भी
ठिठुरता है
और पेड़ों से लिपट
पूरी रात ओस में भीगता है।
सुबह सूर्य
के आगमन पर
ओटले
पर बैठ सुखाता है
बीते दिनों की
सीलन को।
सुबह सूरज चढ़ते ही
शब्द हो जाता है
मन ही तो है
कभी कुछ नहीं कहता
केवल सुनता है
सच की शेष गाथाएं।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०४-१२-२०२२ ) को 'सीलन '(चर्चा अंक -४६२४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आदरणीय नमस्ते 🙏❗️
ReplyDeleteसुबह सूरज चढ़ते ही
शब्द हो जाता है
मन ही तो है
कभी कुछ नहीं कहता
केवल सुनता है
सच की शेष गाथाएं।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ... मन की भाषा सुनना ही सबसे बड़ा सच है...
मेरी रचना "मैं ययावारी गीत लिखूँ," मेरे ब्लॉग पर पढ़ने की बाद ब्लॉग पर ही दिए गए लिंक पर भी मेरी आवाज़ में दृश्यों की संयोजन की साथ अवश्य देखें और सुनें... सादर ❗️--ब्रजेन्द्र नाथ
अवचेतन की परते उघाड़ती प्रकृति से मन को जोड़ती सुन्दर पंक्तियाँ
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण जी !
बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteप्रकृति और मन को जोड़ती सुन्दर रचना 🙏
ReplyDeleteवाह ...मन की सीलन पर बहुत खूब लिखा आपने
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