एक दिन
गांव की शहर हो जlने की लालसा
मिटा देगी
लौटने की राह।
खेत
अब रौंदे जा रहे हैं
मकानों के पैरों तले।
गांव
नगर होकर
सिर खुजा रहे हैं।
गांव की पीठ पर
विकसित होने का दिवास्वप्न
उकेरा गया
गहरे नाखूनों से।
नगर
महानगर की चमक में
बावले होकर
भाग रहे हैं।
नगर के पीछे
शर्ट को पकड़े दौड़ रहे हैं
गांव।
नगर रोज
धक्के खाता
महानगर आता है
देर रात थका मांदा लौट जाता है
देर रात सो जाता है
सीमेंट जैसे सपने ओढ़कर।
महानगर आ फंसा है
अपनी जकड़ में
दम फूल रहा है
हांफ रहा है
रोज बहाने खोजकर
गांव की हरियाली
किताबों में महसूस करता है।
महानगर
गांव होना चाहता है
गांव नगर
और
नगर होना चाहते हैं महानगर।
एक दिन खेत खत्म हो जाएंगे
तब
गांव भी खत्म होंगे।
महानगर तब खाली होकर
विकास की एतिहासिक भूल
कहलाएंगे।
तब
नगर
की पीठ पर फिसलते
लटकते
खिसियाहट भरे
गांव होंगे।
हम बैलगाड़ी से
सीमेंट की सड़कों पर
होंगे
लौटने को आतुर
पुरातन युग की ओर।
तब खबरों में
केवल मकान होंगे
आदमी नहीं।
पानी और हवा
नहीं होगी
विकास होगा खौफनाक और डरावना।
कड़वी सच्चाई
ReplyDeleteआभार आदरणीय शर्मा जी।
ReplyDeleteभविष्य की घटना से अवगत कराती यह रचना, स्वयं का अवलोकन करने को मजबूर कर रही है। बेहतरीन है।
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