सुबह
दूर कुछ
थके पैरों
का एक कारवां
ठहरा है।
देख रहा हूँ
पैरों पर सूजन से
टूट गईं हैं
बच्चों की चप्पलें।
चलती हुईं
कुछ माएं
ढांक रही हैं
बच्चों के तपते
शरीर
अपने आंचल से।
पर पिता
अपनी
बिवाइयों में
रेत भर रहा है
समय की।
भूख से मचलते
बच्चे
के मुंह में
उड़ेली जा रही हैं
गर्म बूंदें
जो प्लास्टिक
की बोतल
दबा रखी है
बूढ़ी अम्मा ने
परिवार का पानी
बचाने की खातिर।
दोपहर
धूप सिर पर है
छांव फटे लत्ते सी
बिखरी है
भीड़ उसी में
समा गई है।
खमोश चेहरे
कई सुबह से
चल रहे हैं
अभी और चलना है
एक सदी
या
उससे कुछ अधिक।
सुबह
के सपने दोपहर में
देख रहे हैं।
माताएं
सुला रहीं हैं बच्चों को
कैसे कहूँ
दोपहर के बाद
सांझ और फिर
स्याह रात भी आती है..।
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आर्ट..श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी