झुर्रियों वाले समाज मेंं
शोर नहीं है
एकांकीपन है
जो कभी-कभी चीखता है
उम्रदराज चीख
बेदम होती है
लेकिन
अक्सर
कालखंड को
कर जाती है
बेदम।
धुंधली आंखों से
बेशक
सब कुछ धुंधला नजर आता है
बावजूद
वे दूर का संकट देख लेते हैं
बेहद साफ।
बेशक सुनने की क्षमता भी
कम हो जाती है
बावजूद सुन लेते हैं
आहट उस संकट की।
बेशक चलने की गति
धीमी हो जाती है
बावजूद
वे सोच लेते हैं
समाधान संकट का
तेज गति से।
बेशक अकेले दम घुटता है उनका
बावजूद
रखते हैं ख्याल
उन
बच्चों द्वारा बनाई गई दूरियों का
उनमें तलाशी जाने वाली
मरीचिका वाली
खुशी का
बच्चों के चेहरों का
उनकी बेनामी बेबसी का
मन में उठने वाले तूफानों का
और
रह जाते हैं
अकेले
एकांत
और मौन समेट
किसी एक कमरे में
तन्हा
बिना किसी शिकायत
केवल मुस्कुराते हुए।
बेशक दर्द होता है उन्हें
बावजूद
वे कहते नहीं हैं
मन की
अक्सर वे
उस समय खामोश हो जाते हैं
जब उन्हें
घर की कोई पुरानी
लकड़ी की कुर्सी
पर बैठकर
सबकुछ सुनने का होता है
निर्देश।
बेशक वे सोचते हैं
अपनी परिवरिश में रह गई कमियों पर
मनन करते हैं
अपनी खामियों पर
बच्चों की जिद पर
अपने जरुरत से अधिक नेह पर
सुखों वाले दिनों पर
और
केवल आज पर।
वे
मनन नहीं करते
अपने आज के हालात पर
अपने माता-पिता होने के अधिकार पर
अपनी खुशियों पर
अपनी बातों के अनसुना कर दिए जाने पर
बच्चों की जिद पर
उनके रूखे बर्ताव पर
अपने सम्मान पर।
अक्सर वे
बतियाते हैं
समय से
वृक्षों से
खाली मैदानों की बैचों से
हमउम्र और कम सुनने वाले साथियों से
अपने अकेले कमरे से
कभी-कभी अपने घर की दीवारों से
आंगन में फुदकते पक्षियों से
वृक्षों से
वे बतियाते हैं
थकन से
कुछ पुरानी किताबों से।
अक्सर देर रात
थकी आंखों से
आंसुओं में बहने लगता है दर्द
तब किताब
बंद कर देते हैं
ये कहते हुए
कोई अध्याय अधूरा सा रह गया
इस जनम
कोई
पेज आधा सा लिखा हुआ।