Followers

Showing posts with label किताब जंगल रंग पसीजकर आदमी गूंगी सभ्यता किताबी जंगल कुल्हाड़ी. Show all posts
Showing posts with label किताब जंगल रंग पसीजकर आदमी गूंगी सभ्यता किताबी जंगल कुल्हाड़ी. Show all posts

Wednesday, September 15, 2021

किताब के पन्नों का जंगल


 

दूर

कहीं कोई

जीवन

अकेला खड़ा है।

जंगल

अब विचारों में

समाकर

किताब के पन्नों

पर

गहरे चटख रंगों

में

नज़र आता है।

अब

जंगल और

किताब के पन्नों

के बीच

आदमियों की भीड़ है।

भीड़ किताबों

को सिर पर उठाए

विरासत की ओर

कूच

कर रही है।

किताब के पन्नों का

जंगल

तप रहा है

उसके रंग

पसीजकर

आदमी के चेहरे पर

उकेर रहे हैं

कटी और गूंगी सभ्यता।

जंगल और किताबी जंगल

के बीच

कहीं कोई आदमी

है

जिसका चेहरा कुल्हाड़ी

की जिद्दी मूठ

हो गया है।

कुल्हाड़ी

जंगल

और

आदमी के बीच

अब कहीं कोई

भरोसा

सूखकर किताब के

पन्नों वाले जंगल के

आखिरी पृष्ठ

की निचली

पंक्तियों की बस्ती में

सूखे की अंतहीन

बाढ़ में समा गया है।

अब जंगल

घूमने की नहीं

पढ़ने और पन्नों में

देखने

की एक वस्तु है...।

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...