दूर
कहीं कोई
जीवन
अकेला खड़ा है।
जंगल
अब विचारों में
समाकर
किताब के पन्नों
पर
गहरे चटख रंगों
में
नज़र आता है।
अब
जंगल और
किताब के पन्नों
के बीच
आदमियों की भीड़ है।
भीड़ किताबों
को सिर पर उठाए
विरासत की ओर
कूच
कर रही है।
किताब के पन्नों का
जंगल
तप रहा है
उसके रंग
पसीजकर
आदमी के चेहरे पर
उकेर रहे हैं
कटी और गूंगी सभ्यता।
जंगल और किताबी जंगल
के बीच
कहीं कोई आदमी
है
जिसका चेहरा कुल्हाड़ी
की जिद्दी मूठ
हो गया है।
कुल्हाड़ी
जंगल
और
आदमी के बीच
अब कहीं कोई
भरोसा
सूखकर किताब के
पन्नों वाले जंगल के
आखिरी पृष्ठ
की निचली
पंक्तियों की बस्ती में
सूखे की अंतहीन
बाढ़ में समा गया है।
अब जंगल
घूमने की नहीं
पढ़ने और पन्नों में
देखने
की एक वस्तु है...।