कहीं कोई चेहरा
उदास है
बैठा है किसी भीड़ की नाभी में
किसी खोह में।
कहीं कोई चेहरा
सुर्ख है
अपने ही शरीर में
हजार ज़ख्मों के बीच उलझा सा।
कहीं कोई चेहरा
दमक रहा है
असंख्य शरीरों पर
रेंगता हुआ सच उस चेहरे के पीछे है।
कहीं कोई चेहरा
बेदाग है
किसी कोठरी में मुंह डाले
खोज रहा है
बेदाग बने रहने वाली कोई खिड़की।
कहीं कोई चेहरा है ही नहीं
केवल
आवाज है, उसके भाव है
पथराए हुए
शिलाओं पर नुकीले पत्थरों से उकेरे गए
समय की तरह बेबाक लेकिन अदृश्य।
और कितने चेहरे चाहिए
हर चेहरा
अपनी किताब साथ लाएगा
और
असंख्य
सच जो रेंगते भी है समय की पीठ पर
बरसों तक।
सोचिएगा
कोई चेहरा न होना ही बेहतर है
चेहरे पाकर
हम उसी के होकर रह जाते हैं।