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Friday, September 17, 2021

जंगल होता आदमी

 



आदमियों की भीड़ में
आदमी।
आदमी के चेहरे पर
आदमी
और आदमी के 
जम़ीर पर पैर लटकाकर बैठा आदमी।
पैरों से आदमी को गिराता आदमी
पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ाता आदमी। 
दंभी आदमी
व्यवस्था होता आदमी।
आदमी 
पर सवार आदमी
और आदमी से लड़ता आदमी।
आदमी से आदमी होने की जिद
में रोज
दरकता और सुलझता आदमी।
खुद में दौड़ता
खुद से पराजित होता
खुद से जीतने के लिए 
सीमाएं बनाता
और तोड़ता आदमी।
भीड़ में आदमी
और
अकेले में आदमी।
अकेले में भीड़ जैसा आदमी 
और भीड़ में बहुत अकेला आदमी।
चीखता आदमी
रोता आदमी
जिद्दी आदमी
घमंडी आदमी
दूसरों के दुखों पर
ठहाके लगाता आदमी।
भूखा आदमी
लालची आदमी
ढोंगी आदमी
गुस्सैल आदमी
जीता आदमी
जीने का ढोंग करता आदमी।
अपने से टकराता आदमी
आदमी की जात में
कई तरह का आदमी।
चेहरे पर आदमी
बाजू में आदमी
सिर पर आदमी
पैरों में आदमी
सत्ता में आदमी
और 
आदमी में सत्ता जैसा आदमी।
महफिल में सजा संवरा आदमी
आदमी में
उदास सी महफिलें होता आदमी।
अकेले में रोता आदमी
अकेले होने को
जीता आदमी।
घर को बनाता आदमी
घर होता आदमी
आदमी में टूटते घरों में
ईंट सा विभाजित आदमी।
टूटी खिड़की सा आदमी
झरोखों सा आदमी
जंगल से निकला आदमी
जंगल होता आदमी
सुलगता आदमी
रेतीला आदमी।
सोचता हूं
और कितने आदमी हैं
यह भीड़ हम नहीं देख पाते
हम केवल शरीर को जीते हैं। 
सोचता हूं 
आदमी 
खारा सा समुद्र हो गया है
जो
अपने खारेपन का नेह
बिखेरकर 
जमीन को पानी तो दे रहा है
लेकिन 
नमक भी 
रिस रहा है
उसके गर्भ में। 
सोचता हूं
कुछ आदमी
फूल हैं
कुछ पत्ती
कुछ अंकुरण 
और बहुत थोड़े से आदमी
उम्मीद भी हैं
लेकिन 
डरता हूं बढ़ती हुई भीड़ में
एक दिन
महत्वकांक्षा का जंगल
उन्हें खूंदकर 
बना न दे
आदमी की
कोई
सूखी और बंजर जमीन।
जहां 
नहीं होगा 
कोई आदमी
होगी केवल 
रेत
पानी
और बहुत सारा खारापन। 





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