जिंदगी
और कैसी है
कुछ
ऐसे ही जीते हैं
कुछ ऐसे
हो जाते हैं।
जीवन का
यदि कोई
चित्र खींचा जाए
तब
वह
कुछ इसी तरह का होगा।
कुछ जो
दमक रहा है
वह
हमारी
चेतना है
लेकिन
उलझनों के बीच
वह
सतत
छोटी हो रही है।
चेतना के बीच
ये जंगल हमीं ने बुना है
हम
ऐसे ही
खुश हैं
हम
इन उलझनों वाले
धागों पर रोज सफर
तय करते हैं
कूदते हैं
टूटते हैं
और
इन्हीं में बसे हमारे घर में
थककर सो जाते हैं।
सोचता हूँ
बुना हुआ जीवन
और चुने हुए रास्तों में
हम
कितने साथ हैं
कितने अकेले।
इस जंगल में
अब कोई पेड़ नहीं है
केवल हैं
ऐसे ही
उलझे से
जीवन के चित्र।