घर
कुछ
पिल्लरों पर
टेकता है
अपना भारी भरकम शरीर।
पहले
उन्हें खुशियां
कहा जाता था
अब
कर्ज में
दबे
व्यक्ति का चीत्कार।
पहले घर की
जमीन और दीवारें
हरदम साथ
महसूस होती थीं
अब
जमीन पर
कोई है कहां।
घर बड़े हो गए हैं
आदमी हो रहा
बहुत छोटा।
कच्चे
घर की दीवारों की
दरारें भी
कच्ची होती थीं
मन के लेप से
भर जाया
करतीं थीं।
अब घर और दीवारें
पक्की हैं
दरारें
नज़र नहीं आतीं
होती हैं
आसानी से
भरी नहीं जातीं।
पहले
जिसकी छत
वो
सबसे धनी
कहा जाता था
हवा और धूप
खुलकर पाता था।
अब छतें हैं
हवा
और धूप भी हैं
बस
आदमी
का रिश्ता
उस छत से
टूट गया।
पहले रोज पूरा
घर
छत पर
ठहाकों की हाजिरी
लगाता था
अब
पूरी उम्र
छत के नीचे
ही बिताता है
ठहाकों को छत पर
कहीं
छोड़ आई है
ये नई सदी...।