बारुदों की गंध में
जब
रेत पर
खींचे जा रहे हैं
शव
और
चीरे जा रहे हैं
मानवीयता के
अनुबंध।
जब
सिसकियां
कैद हो जाएं
कंद्राओं में
और
बाहर शोर हो
बहशीयत का।
उधड़े हुए चेहरों पर
तलाशा जा रहा हो
हवस का सौंदर्य।
जब चीखें
पार न कर पाएं
सीमाएं।
जब दर्द के कोलाहल में
आंखों में
भर दी जाए रेत।
जब
आंधी के बीच
रेत के पदचिन्ह
की तरह ही हो
जीवन की उम्मीद।
जब आंखों में
सपनों की जगह
भर दी गई हो
नाउम्मीदगी की तपती रेत।
जब चीत्कार के बीच
केवल
लिखा जा सकता हो दर्द।
मैं
फूलों पर कविता
नहीं लिख सकता।
रेत में सना सच
और
एक मृत शरीर
एक जैसा ही होता है
दोनों में
जीवन की उम्मीद
सूख जाती है
गहरे तक
किसी
अगले
आदि मानव की तलाश के पहले तक।
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(अफगानिस्तान में मौजूदा हालात और वहां की बेटियों पर यह कविता...। )