नदियां इन दिनों
झेल रही हैं
ताने
और
उलाहने।
शहरों में नदियों का प्रवेश
नागवार है
मानव को
क्योंकि वह
नहीं चाहता अपने जीवन में
अपने जीवन की
परिधि में कोई भी खलल।
सोचता हूं
कौन अधिक दुखी है
कौन किसके दायरे में हुआ है दाखिल।
नदियों की सीमाएं नहीं होती
नदियां अपनी राह प्रवाहित होती हैं
सदियां तक।
सीमाओं में हमें बंधना चाहिए
इसके विपरीत
हम बांध रहे हैं नदियों को
अपनी मनमाफिक
और
सनक की सीमाओं में।
नदियों पर हमारा क्रोध
कहां तक ठीक है
जबकि
हम जानते हैं
उसके हिस्सों पर बंगले बनाकर
हम
अक्सर नदियों के सूख जाने पर
कितनी नौटंकी करते हैं।
बंद कीजिए
नदियों को उलाहना
और
ध्यान दीजिए दायरों पर
और
ध्यान दीजिए
मानव और नदियों के बीच रिश्तों में
आ रही दरारों पर।
नदियां कभी क्रूर नहीं होतीं
यदि वह
अपनी राह बहती रहें....।