एक नदी
बहती है
अब
भी निर्मल
और
पूरे प्रवाह से
मन
की स्मृतियों में।
कोई
तटबंध
नहीं है
कोई
रिश्ते
की बाधा भी नहीं।
वो बहती है
मन
की
एक इबारत वाले
पथ पर।
वो बहती है
आंखों में
बिना सवाल लिए।
अंदर और बाहर
एक
जिद्दी
सच है जो
नदी को
पानी को
भावनाओं को
तटबंध
में बांधकर
उसका दूसरा सिरा
कारोबार
की
घूरती और ललचाई
शिला से बांध देता है।
बाहर
नदी नहीं है
केवल
स्वार्थ और उसकी दिशा
के पथ पर
एक
विवशता बहती है।
बाहर की नदी
कभी
मन की नदी
थी
अब केवल उसका
अक्स है।
बाहर की
नदी
अब नहीं झांकती
अपने अंदर
क्योंकि
सूखा देख
वो सहम उठती है।
मैं थका हारा
बाहर की नदी
किनारे
पड़ी कुछ
अचेतन
अवस्था वाली मछलियों
को लिए
लौट आया
मन की नदी
के तट पर
और
उन्हें
दे दी
वो निर्मल नदी।
एक दिन
मन की नदी
से
मिलवाऊंगा
बाहर की नदी को।
कहते हैं
स्मृतियां
हमें
दोबारा गढ़ जाया करती हैं।