कितना सबकुछ
छूट जाता है ना पीछे
समय के साथ।
मां की गोद
उसका वो
अकेले क्षणों का दुलार।
चिंता वाली
वो सलवटें
जो माथे पर
अगले ही पल सुस्ताने लगतीं
खुशी से
हमें ठीक पाकर।
हमें पहले पहल
पैरों चलाने वाली
वो उंगली।
वो घर का दालान
जिसे हम पहली बार
करते हैं पार।
मां
के हाथ का अचार
उसका स्वाद
वो
स्वाद और मां के भरोसे
वाली बरनी।
सच कितना सबकुछ छूट जाता है
वो पहला
बस्ता
पहली
सिलेट
पहली कलम
पहली
कापी
जिस पर हमने उकेरी थीं
पहली बार
मनचाही लकीरें
जिन्हें
सीधा करना सिखाया था
रसोई से थककर
अक्सर आ बैठने वाली पसीना पोंछती
मां ने।
वो
रंग
वो कपडे
जो मां ने दिलवाए थे
अपनी पसंद के
हम बड़े हो गए
कपडे
अब भी मां की
उम्मीद पर
खरे उतर रहे हैं
वे छोटे ही हैं
अब बचपन की यादें उन्हें
पहना करती हैं।
सच कितना सबकुछ छूट जाता है
पीछे
गलतियों पर
मां
का कवच हो जाना
पिता
के सामने आकर
अक्सर बचाना
अकेले में बैठकर
रिश्तों को समझाना
गलती पर डांटना
पिता के नेह सागर मन तक
हमें पहुंचाना
दोबारा गलती न करने का
अहसास करवाना
पिता और हमारे बीच
अक्सर सेतु बन जाना।
कितना सबकुछ पीछे छूट जाता है
रात तक मां के जागने पर
कभी कभी खुलने वाली हमारी पलकें
और
उनमें छिपी चिंता।
सफलता के पहले ही
अलसुबह
गूंथकर बनाए गए
बेसन के लड्डू
जो
भरोसे पर खरे उतरते
ही थे।
गर्व से बाजू में बैठकर
हमारी समझदारी भरी बातें
सुनकर
मन ही मन उसका मुस्कुराना।
अब
हमें लगता है हम समझदार हो गए
और
जिम्मेदारियां हमें दूर ले आईं
बहुत दूर।
अब
मां
बूढ़ी
उम्रदराज होकर
अकेले ही सहलाती है
अपने शरीर की
सख्त झुर्रीदार त्वचा को
ये कहते हुए कि
छोटा आया नहीं बहुत समय हुआ अब तक
पूछना तो अबकी कब लौटेगा।
वो खुश हो जाती है
केवल आवाज सुनकर
वो
जी उठती है
केवल देखकर।
वो सी लेती है
पता नहीं कैसे
अब भी इस उम्र में
उस पुराने और इस नये
वक्त के
बदलावों से
रिश्तों में आने वाली उधड़न को।
मां के पास अब भी है
वो
नेह भरा जादू
जो
पढ़ लेता है
अक्सर
हमें
हमारे जीवन
हमारी उलझनों
हमारे
अनकहे सच को।
वैसे
मां अक्सर कहती है
बेटा
अब दिखाई कम देने लगा है
ये
आंखें
बनवानी पड़ेंगी दोबारा
और मैं
मुस्कुरा देता हूं
उससे लिपटकर
जब भी
होता हूं उसके करीब।
बहुत सा
बाकी है अभी
जो
मां के पास ही मिलता है
मां
से ही मिलता है
अक्सर मां
पिता हो जाती है
पिता के जाने के बाद।