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शनिवार, 3 जुलाई 2021

उस रेत पर बिटिया और मैं











यूं रेत पर 

बैठा था 

अकेला

कुछ विचार 

थे, 

कुछ कंकर 

उस रेत पर। 

सजाता चला गया

रेत पर कंकर 

देखा तो बेटी तैयार हो गई

उसकी छवि 

पूरी होते ही वो मुझसे बतियाने लगी

मुस्कुराई, 

कभी नजरें इधर-उधर घुमाई...। 

ये क्या 

तभी बारिश भी आ गई...

वो रेत पर बेटी भीगने लगी

मेरा साहस नहीं हुआ 

कि 

उसे वापस कंकर बना दूं। 

वो भीगती रही 

मैं देखता रहा...

भीगता रहा...। 

न मै उठकर गया और न ही वो। 

हम दोबारा बतियाने लगे

बारिश में बहुत सारा मन

भीग चुका था

बेटी 

भीगती हुई 

ठिठुरती है बिना आसरे।

मैंने उसके ठीक ऊपर

बना दिया

दोनों हथेलियों से  एक बड़ा सा छाता।

अब बेटी खिलखिला रही थी

मुझे देखते हुए।


 

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