अक्सर हम
जंगल की मानवीय भूल पर
क्रोधित हो उठते हैं
जंगल से हमारी आबादी में
जंगली जीव की आदम
को
पलक झपकते ही
करार दे देते हैं
हिंसा
और उसे हिंसक।
कभी
जंगल जाईयेगा
पूछियेगा
कटे वृक्षों से
शिकार होकर
मृत
वन्य जीवों की अस्थ्यिों के ढांचों से
हमारी आबादी की प्यास से सूख चुके
जंगल के
तालाबों, नदियों से
जंगल के धैर्य से
हमारे पैरों खूंदी गई
वहां की
लहुलहान आचार संहिता से
कि क्या कोई
शिकायत है
उन्हें मानव से...?
जवाब यही आएगा
नहीं
वो तो इंसान है
जानवर नहीं
क्योंकि जानवर तो
जंगल में रहते हैं।
आखिर
जंगल
सभ्य और हमारी बस्ती
असभ्य क्यों हो रही है।
जंगल आखिर
बहुत दिनों तक
जंगल नहीं रहने वाला
क्योंकि
जंगल की छाती पर
सरफिरे
अब शहर गोद आए हैं।
जंगल
अब शहर होगा
क्योंकि
जंगल
भयाक्रांत है
कट रहा है
सूख रहा है
अस्थियों में बिखर रहा है
और
हमारे यहां वह
साजिश में उग रहा है।
अबकी जंगली जीव को
हिंसक लिखने से पहले
सोचियेगा कि
कौन
अधिक हिंसक है
और
किसके घर में कौन दाखिल हुआ
और
किसके मन में
हिंसा का जहर है।
आखिर
हमारे यहां आते ही
उसे
मार दिया जाता है
क्योंकि वह
हिंसक है
हम जंगल में दाखिल हों
तब
उसका हमला
भी हिंसा है
क्योंकि
वह रख नहीं सकता
अपना पक्ष
वह
जारी नहीं कर सकता
कोई श्वेत पत्र
अपनी और अपनों की मौतों पर।
- अक्सर खबरों में देखता हूं कि जब भी कोई वन्य जीव शहरी आबादी में आता है तब उसे हिंसक करार दे दिया जाता है, लोग उससे भयभीत हो उठते हैं, ये सच है कि वन्य जीव की जगह शहर नहीं जंगल है...तब क्या आदमी की जगह जंगल है...क्या चाहिए उसे जंगल से, क्यों खेल रहा है वह जंगल से...ये नकाबपोश आदमी अपने जंगल से भाग रहा है क्योंकि यहां जीवन मुश्किल हो गया है...ये कविता अंदर उठी चीखों से है कि क्यों हम उन्हें उनका जंगल नहीं लौटा देते...क्यों आएगा कोई अपना घर छोडकर...। सोचियेगा...
संदीप कुमार शर्मा,
संपादक, प्रकृति दर्शन, मासिक पत्रिका