दो
मौसम
दो
उम्र
और
सारे सच।
अबोध सुर्ख
और
स्याह बुढ़ापा
दोनों
गहरे होते हैं।
उम्र का सुर्ख
मौसम
अबोध से बोध
की ओर
सफर है।
उम्र का स्याह
वक्त
बोध का शिखर है।
दो
रंग उम्र नहीं हो सकते
उम्र
रंग से उकेरी जा
सकती है।
कोई
सर्द सुबह
कुछ भीग रहा होता है
अंतस
में गहरे
वो सूखकर
स्याह हो जाता है
बुजुर्ग
हो जाता है।
स्याह मौसम में
सुर्खी को समझना
अबोध वक्त
को
दोबारा टांकने जैसा है।
थकी उम्र की
धुंधली पायदान
पर
केवल
सच दिखता है
सुर्खी और स्याह
मौसम के बीच।
स्याह वक़्त ही बहुत कुछ सिखाता है बोध का ही शिखर हुआ न .
ReplyDeleteहो सकता है आपने कुछ और सोचा हो ।
आपकी हर रचना विचार करने योग्य होती है यूँ ही सहजता से पढ़ कर नहीं समझी जा सकती ।
आपको बहुत आभारी हूं संगीता जी। बोध के मायने बदल गए हैं, हम जिसे अपने ज्ञान का शीर्ष मान लें वह हमारा अपना बोध शीर्ष हो जाता है। चुनिंदा ही होंगे जो असल बोध और उसके शीर्ष पर बात करना चाहते हैं। जीवन का हर पल और विशेषकर स्याह समय सबसे कठिन सबक होता है और उस दौर में सीखना चाहिए बिना भयभीत हुए। बहुत आभारी हूं आप मेरी रचना को पसंद करती हैं।
Deleteथकी उम्र की
ReplyDeleteधुंधली पायदान
पर
केवल
सच दिखता है
सुर्खी और स्याह
मौसम के बीच।..जीवन संदर्भों को रेखांकित करती सार्थक एवम गूढ़ रचना ।
जीवन बहुत सिखाता है... हर कदम...। आभार आपका...।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयूँ तो बुढापा जीवन के गरिमामय रूप को दिखाता है पर इसकी विद्रूपता इसके सारे रंग चाट जाती है | बहुत अच्छा लिखा आपने संदीप जी | दो मौसम जीवन के--- पर कितना अंतर है दोनों में |
ReplyDeleteबहुत आभार रेणु जी...।
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