दो
मौसम
दो
उम्र
और
सारे सच।
अबोध सुर्ख
और
स्याह बुढ़ापा
दोनों
गहरे होते हैं।
उम्र का सुर्ख
मौसम
अबोध से बोध
की ओर
सफर है।
उम्र का स्याह
वक्त
बोध का शिखर है।
दो
रंग उम्र नहीं हो सकते
उम्र
रंग से उकेरी जा
सकती है।
कोई
सर्द सुबह
कुछ भीग रहा होता है
अंतस
में गहरे
वो सूखकर
स्याह हो जाता है
बुजुर्ग
हो जाता है।
स्याह मौसम में
सुर्खी को समझना
अबोध वक्त
को
दोबारा टांकने जैसा है।
थकी उम्र की
धुंधली पायदान
पर
केवल
सच दिखता है
सुर्खी और स्याह
मौसम के बीच।