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सोमवार, 5 अप्रैल 2021

पहाड़ तुम कभी शहर मत आना


 सुना है

सख्त पहाड़ों

के

गांव

में

तपिश

भी नहीं है

और 

गुस्सा भी नहीं।

वे

अब भी

अपनी पीठ पर

बर्फ के 

बच्चों को

बैठाकर

खिलखिलाते हैं।

सुना है

वहां

सुनहरी सुबह

और 

गहरी नीली

सांझ होती है।

पहाड़

अपने पैर

जमीन में

कहीं बहुत गहरे

लटकाए

बैठे हैं

चिरकाल से।

हवा

भी उसके भारी भरकम

शरीर पर

सुस्ताने आती है।

ओह

पहाड़ तुम

कभी 

शहर मत आना

यहाँ

आरी और कुल्हाड़ी

का 

राज है

जंगल

भी आए थे

शहर घूमने

यहीं बस गए

और अब

शहर

उन पर 

पैर फैलाए

ठहाके लगाता है।

आती है

कभी कभी

जंगल के

सुबकने की आवाज़...।

मत 

आना तुम शहर...।

14 टिप्‍पणियां:

  1. आती है कभी कभी जंगल के सुबकने की आवाज मत आना तुम शहर | बी---- बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना |

    जवाब देंहटाएं
  2. जंगल के सुबकने की आवाज, बर्फ के बच्चे, मानव के अतिक्रमण से मरणासन्न जंगल और उसकी लोलुप नजरों से सिहरते पहाड़....
    सार्थक संदेश देती रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. जंगल//भी आए थे//शहर घूमने///
    यहीं बस गए/और अब /शहर /उन पर
    पैर फैलाए /ठहाके लगाता है।//आती है /कभीकभी/जंगल के /सुबकने की आवाज़...।//
    उफ!! इतनी संवेदनशीलता!! केवल कवि मन ही महसूस सकता है!!!!

    जवाब देंहटाएं
  4. जी हमेशा की तरह उत्साह बढ़ाने वाली प्रतिक्रिया...। आभार...

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी रचना जीवंत शब्द चित्र है हर पंक्ति अपनी बात कह पाने में सक्षम है।
    सुंदर बिंबों और सार्थक संदेश के द्वारा मन को झकझोरती
    सराहनीय सृजन।
    -----
    सादर
    प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. श्वेता जी बहुत आभारी हूं...। आपको मेरी रचना पसंद आई...ये सब अनुभव और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव का प्रतिफल है।

      हटाएं
  6. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-04-2021) को  "आओ कोरोना का टीका लगवाएँ"    (चर्चा अंक-4029)  पर भी होगी। 
    --   
    मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। परन्तु प्रसन्नता की बात यह है कि ब्लॉग अब भी लिखे जा रहे हैं और नये ब्लॉगों का सृजन भी हो रहा है।आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --  

    जवाब देंहटाएं
  7. पहाड़ तुम कभी शहर मत आना ... सारे भाव एक पंक्ति में सिमट गए हैं ... गहन भाव लिए सोचने पर मजबूर करती रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी रचना की कुछ पंक्तियां तो दर्द सा दे गईं, वाकई इंसान बड़ा बेदर्द है, वह हमेशा से स्वार्थी रहा है,अपने लिए जीता है किसी के लिए दर्द नही,खासतौर से तो प्रकृति को अपनी अमानत समझ रौंदता रहता है,सुंदर कृति ।

    जवाब देंहटाएं

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