सुबह
मन
की खिड़की को
बहुत दिन
बाद
खोला
देखा
कमरे में
सीलन
तह कर रखे गए
विचारों की
ऊपरी परत पर
जम चुकी थी।
मन के
एक कोने में
कुछ यादें रखी
थीं
सहेजकर
उन पर भी
धूल की मोटी परत थी।
एक और
कोने में
हमारी उम्र की सुखद
बारिश
का गवाह
छाता रखा था
नमी
नहीं थी
अब सूख चुका था
उन यादों
और
उस
बारिश के निशान
छाते की पीठ पर
अधमिटी हालत में थे।
छूकर देखना चाहा
हाथ
बढ़ाया
लेकिन वे निशान धरोहर हैं
स्वीकार कर
हाथ खींच लिया।
दीवार पर
कहीं
एक खूंटी पर
तुम्हारा नेह
और
मेरे
ठहाके वाली
एक थैली भी वैसी ही
टंगी थी।
रौशनी के बाद
कमरा
मन
और
यादें
दोबारा अपनी जगह से
उठकर
जीना चाहते हैं
वही हमारे
उम्र के
अच्छे दिन।
खिड़की के बाद
दरवाज़े पर आहट से
सब
मौन हो गया दोबारा
तुम्हें सामने पाकर
वो
एक बंद कमरा
बेज़ार कमरा
मन
बन
खोलने लगा
यादों की गठरी।
तुम्हारे उस
अकेली खिड़की
पर
सिर
टिकाकर मुस्कुराना
और फिर
वो
कमरे
का घर
हो
जाना
सोचता हूँ
तुम
रौशनी हो
जीवन हो
हवा हो
तभी तो
वो मन
एक घर बन जाया करता है
तुम्हारे होने से...।
बहुत सुंदर।🌻
ReplyDeleteबहुत आभार आपका शिवम जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3012...कहा होगा किसी ने ऐसा भी दौर आएगा... ) पर गुरुवार 29 अप्रैल 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आपका रवींद्र जी।
Deleteऐसी ही अभिव्यक्तियां तो हृदय के तल को स्पर्श कर लेती हैं संदीप जी। बारिश की बूंदों जैसे हैं आपके शब्द।
ReplyDeleteजी बहुत आभारी हूं आपका माथुर जी...। मन के शब्द मन की ताकत होते हैं और यही हमें एक दूसरे करीब लाते हैं। बहुत आभार
ReplyDeleteलाजवाब रचना
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों का कोमल स्पर्श करती आपकी लेखनी,आज के गंभीर वातावरण को रसमय कर गई,बहुत प्यारी रचना ।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूं जिज्ञासा जी।
Deleteअहा , संदीप जी , कितने प्यारे बिम्ब और कितनी मधुर यादें ।
ReplyDeleteमुझे इस तरह के बिम्ब से सजी रचनाएँ बहुत पसंद आती हैं क्यों कि मैं भी यादों की अलगनी पर ख्वाब सुखाती हूँ ।😄😄
जी संगीता जी...आभारी हूं। ऐसी रचनाएं मन में बसे अपनेपन के शब्दों को उभार देती हैं। आभार
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