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मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

चीखती है खामोशी भी


हर बार

खामोशी

केवल चुभती है

या

इतना गहरा भेद जाती है

जिसमें

सदियों रिसते हैं

समय,

दर्द

सच

चीख

और दरक चुका भरोसा।

उम्रदराज खामोशी

इतिहास लिखती है

वह

चीखती नही

वह

चुभती है। 

इसके विपरीत

वहशियाना शोर 

तात्कालिक समय के कानों को भेद सकता है

इतिहास में

सच में

भरोसे की जमीन पर

जगह नहीं पा सकता।

खामोशी भी चीखती है

लेकिन

उसकी चीख

को पकने में समय लगता है

वो अंदर ही अंदर 

दहकती है।

बेढंगा शोर 

बहशी होकर

अधपका जख्म हो जाता है

और 

रिसता है अपने ही अंदर

नकारेपन की मवाद बनकर।

शोर के पीछे

भी तंत्र है

और 

खामोशी के पीछे भी तंत्र है

शोर और खामोशी

दोनों के बीच

एक आदमी है

जो

पिस रहा है

महीन हो चुका है

टूट रहा है

दला जा रहा है

अपनी 

भिंची खामोशी के बीच।

देखना

एक दिन खामोशी की चीख

शोर 

को बहरा कर 

बसाएगी

अपना कोई नया समाज।

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेढंगा शोर

    बहशी होकर

    अधपका जख्म हो जाता है

    और

    रिसता है अपने ही अंदर

    नकारेपन की मवाद बनकर।

    शोर के पीछे

    भी तंत्र है

    और

    खामोशी के पीछे भी तंत्र है

    शोर और खामोशी

    दोनों के बीच

    एक आदमी है

    जो

    पिस रहा है

    महीन हो चुका है

    टूट रहा है. ।बहुत सही लिखा आपने,सच एक खामोशी के अंदर हजार बातें जज्ब होती है, और एक इंतहा के बाद जब उस खामोशी को जुबान मिलती है, तो घुटती हुई आवाजों और सांसों का दर्द एक विकराल रूप ले लेता है,जिसे संभालना मुश्किल होता है । बहुत लाजवाब अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार आपका जिज्ञासा जी...। कितनी खामोशी है किसी एक हल्के में और कितना शोर है किसी दूसरे हल्के में। खामोशी से कभी कोई कारण नहीं पूछता, लेकिन शोर अपना दिखावा खूब करता है।

      हटाएं
  2. आपने आज की बात भी की है और आने वाले कल के लिए उम्मीद भी ज़ाहिर की है। मनन कर रहा हूँ आपकी इस अभिव्यक्ति पर्।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार आपका माथुर जी...। आज बहुत स्याह है लेकिन कहीं कुछ दरक रहा है तो कहीं कुछ मन में कहीं अंकुरित भी हो रहा है...देखियेगा कल बहुत बदला हुआ होगा।

      हटाएं
  3. वह चीखती नहीं, चुभती है।... वाह!!!

    जवाब देंहटाएं

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