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Monday, April 26, 2021

पिता बोले- ...मां की तरह बनूंगा, मां नहीं बन सकता


 

(कोरोना काल पर कविताएं- 6)

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आज सुबह से

उदास है 

मन और विचार।

मोहल्ले में

घर से आंठवा घर ढह गया

क्यांकि वहां से 

एक मां चली गई

अब 

केवल झोपड़ी है

और

बिलखते बच्चे।

मां का चला जाना

घर का 

परिवार का

उम्मीदों का

भरोसे का

अस्तित्व का

इतिहास का 

ढह जाना ही तो है। 

पिता

हैं

लेकिन 

वे

उसी खंबे की तरह है

जिसके नीचे की मिटटी

तेज तूफान का बोझ 

नहीं सह पाई

अब पिता 

ही हैं

घर है

बच्चे हैं

यादें हैं

चूल्हा भी है

लेकिन खाली है

अब वहां

से कोई शोर नहीं है

एक गहरी खामोशी है।

चूल्हे के आसपास 

बैठे बच्चे

मां 

को महसूस रहे हैं

झुलसे हुए समय में।

आंखों में 

केवल 

नमक है

सवाल हैं

चीख है

और 

स्याह होता 

सफेद भविष्य।

पिता ने कांपता हाथ 

बच्चों के सिर पर रखा

वे इतना ही बोले

बनूंगा मां की तरह

मां नहीं 

क्योंकि मैं तो पिता हूं।

4 comments:

  1. ओह, । बहुत मार्मिक । माँ की जगह कोई नहीं ले सकता , पिता भी माँ की तरह बनने का प्रयास ही कर सकता है ।
    मन द्रवित हो गया ।

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    1. जी संगीता जी...लिखते समय मेरे भी आंसू निकले थे..।आभार आपका

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  2. संवेदना के गहनतम स्तर का स्पर्श करती रचना।

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  3. मर्म को स्पर्श कर गई आपकी यह अभिव्यक्ति संदीप जी।

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