हर बार
खामोशी
केवल चुभती है
या
इतना गहरा भेद जाती है
जिसमें
सदियों रिसते हैं
समय,
दर्द
सच
चीख
और दरक चुका भरोसा।
उम्रदराज खामोशी
इतिहास लिखती है
वह
चीखती नही
वह
चुभती है।
इसके विपरीत
वहशियाना शोर
तात्कालिक समय के कानों को भेद सकता है
इतिहास में
सच में
भरोसे की जमीन पर
जगह नहीं पा सकता।
खामोशी भी चीखती है
लेकिन
उसकी चीख
को पकने में समय लगता है
वो अंदर ही अंदर
दहकती है।
बेढंगा शोर
बहशी होकर
अधपका जख्म हो जाता है
और
रिसता है अपने ही अंदर
नकारेपन की मवाद बनकर।
शोर के पीछे
भी तंत्र है
और
खामोशी के पीछे भी तंत्र है
शोर और खामोशी
दोनों के बीच
एक आदमी है
जो
पिस रहा है
महीन हो चुका है
टूट रहा है
दला जा रहा है
अपनी
भिंची खामोशी के बीच।
देखना
एक दिन खामोशी की चीख
शोर
को बहरा कर
बसाएगी
अपना कोई नया समाज।