सुबह
मन
की खिड़की को
बहुत दिन
बाद
खोला
देखा
कमरे में
सीलन
तह कर रखे गए
विचारों की
ऊपरी परत पर
जम चुकी थी।
मन के
एक कोने में
कुछ यादें रखी
थीं
सहेजकर
उन पर भी
धूल की मोटी परत थी।
एक और
कोने में
हमारी उम्र की सुखद
बारिश
का गवाह
छाता रखा था
नमी
नहीं थी
अब सूख चुका था
उन यादों
और
उस
बारिश के निशान
छाते की पीठ पर
अधमिटी हालत में थे।
छूकर देखना चाहा
हाथ
बढ़ाया
लेकिन वे निशान धरोहर हैं
स्वीकार कर
हाथ खींच लिया।
दीवार पर
कहीं
एक खूंटी पर
तुम्हारा नेह
और
मेरे
ठहाके वाली
एक थैली भी वैसी ही
टंगी थी।
रौशनी के बाद
कमरा
मन
और
यादें
दोबारा अपनी जगह से
उठकर
जीना चाहते हैं
वही हमारे
उम्र के
अच्छे दिन।
खिड़की के बाद
दरवाज़े पर आहट से
सब
मौन हो गया दोबारा
तुम्हें सामने पाकर
वो
एक बंद कमरा
बेज़ार कमरा
मन
बन
खोलने लगा
यादों की गठरी।
तुम्हारे उस
अकेली खिड़की
पर
सिर
टिकाकर मुस्कुराना
और फिर
वो
कमरे
का घर
हो
जाना
सोचता हूँ
तुम
रौशनी हो
जीवन हो
हवा हो
तभी तो
वो मन
एक घर बन जाया करता है
तुम्हारे होने से...।