खोज
के परे एक और
संसार है।
चेहरे हर बार
बिकते नहीं
चेहरों
का
अपना लोकतंत्र है।
थकी हुई
भीड़
बदहवास विचारों से
दूर भाग रही है।
भीड़
के पैरों में
युग से
गहरे छाले हैं।
छाले
शोर मचा रहे हैं
गर्म रेत पर
दूर कहीं
कोई
पानी बेच रहा है
रेत के चमकीले मटकों में।
आवाज़
के पैर हैं
वो
घुटने के बल
रेंग रही है
दरिया में
अगली सुबह तक...।
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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र
अद्भुत! अद्भुत लिखा है आपने। हर युग मैं गहरे छाले हैं और सामनांंतर मैं रेत के चमकिले मटके भी।
ReplyDeleteआपने इस रचना के माध्यम से लोकतंत्र का एक अलग ही परिदृश्य प्रस्तुत कर दिया। जो बिलकुल सार्थक और सत्य है।
"...
आवाज़
के पैर हैं
वो
घुटने के बल
रेंग रही है
दरिया में
अगली सुबह तक...।
...'
हमेशा की तरह बहुत गहन प्रतिक्रिया...आभार आपका प्रकाश जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर ( 3041...दोषारोपण और नाकामी का दौर अब तीखा हो चला है...) गुरुवार 27 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमेरी रचना को सम्मान देने के लिए आपका आभार आदरणीय रवींद्र जी।
Deleteअहा, सहज ही बहती विचार श्रृंखला...
ReplyDeleteबहुत आभार आपका आदरणीय पाण्डेय जी।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
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