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Wednesday, May 26, 2021

भीड़ के पैरों में गहरे छाले हैं



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के परे एक और

संसार है।

चेहरे हर बार

बिकते नहीं

चेहरों

का

अपना लोकतंत्र है।

थकी हुई

भीड़

बदहवास विचारों से

दूर भाग रही है।

भीड़

के पैरों में

युग से

गहरे छाले हैं।

छाले

शोर मचा रहे हैं

गर्म रेत पर

दूर कहीं

कोई

पानी बेच रहा है

रेत के चमकीले मटकों में।

आवाज़

के पैर हैं

वो

घुटने के बल

रेंग रही है

दरिया में

अगली सुबह तक...।


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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र 

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