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बुधवार, 26 मई 2021

भीड़ के पैरों में गहरे छाले हैं



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के परे एक और

संसार है।

चेहरे हर बार

बिकते नहीं

चेहरों

का

अपना लोकतंत्र है।

थकी हुई

भीड़

बदहवास विचारों से

दूर भाग रही है।

भीड़

के पैरों में

युग से

गहरे छाले हैं।

छाले

शोर मचा रहे हैं

गर्म रेत पर

दूर कहीं

कोई

पानी बेच रहा है

रेत के चमकीले मटकों में।

आवाज़

के पैर हैं

वो

घुटने के बल

रेंग रही है

दरिया में

अगली सुबह तक...।


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आर्ट- श्री बैजनाथ सराफ ’वशिष्ठ’ जी, खंडवा, मप्र 

8 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत! अद्भुत लिखा है आपने। हर युग मैं गहरे छाले हैं और सामनांंतर मैं रेत के चमकिले मटके भी।
    आपने इस रचना के माध्यम से लोकतंत्र का एक अलग ही परिदृश्य प्रस्तुत कर दिया। जो बिलकुल सार्थक और सत्य है।
    "...
    आवाज़
    के पैर हैं
    वो
    घुटने के बल
    रेंग रही है
    दरिया में
    अगली सुबह तक...।
    ...'

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हमेशा की तरह बहुत गहन प्रतिक्रिया...आभार आपका प्रकाश जी।

      हटाएं
  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर ( 3041...दोषारोपण और नाकामी का दौर अब तीखा हो चला है...) गुरुवार 27 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी रचना को सम्मान देने के लिए आपका आभार आदरणीय रवींद्र जी।

      हटाएं
  3. अहा, सहज ही बहती विचार श्रृंखला...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत आभार आपका आदरणीय पाण्डेय जी।

    जवाब देंहटाएं

अभिव्यक्ति

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