Followers

Wednesday, June 23, 2021

यहां केवल फरेब है

 



महानगर की 
बंद गलियों के
बहुत अंदर
कहीं 
पलती है
बेबसी
किसी फूटे हुए
पाइप से
रिसते हुए 
नाले के मैले पानी के बीच
चरमराई जिंदगी
रोटी को
ही 
भूगोल कहने लगी है।
चीखती है
पूरी ताकत से
हुकुमरां के सामने। 
आवाज़
कभी भेद नहीं पाती 
गरीबी की उन संकरी गलियों 
को।  
हुकमरां 
आते रहे, जाते रहे
गलियां संकरी होकर
अपने में ही धंसती गईं
किसी वृद्धा के
पेट 
की अंतड़ियों की भांति
जिसकी भूख
खत्म हो जाती है
बचती है
केवल
धूरती हुई अस्थियां। 
मैं
उन बस्तियों पर सच सुनने वालों 
और 
खीसे निपारने वालों को
आईना दिखाना चाहता हूं
कि 
यहां 
जिंदगी
एक मैली गटर से आरंभ होती है
और 
उसी मैली गटर के 
किनारे कहीं
दम तोड़ देती है।
चीखता हूं मैं भी
उस दिन
जब 
गटर पर जीने वालों
के बीच
उम्मीद लेकर
कोई
नागैरत पहुंचता है 
तब देखता हूं
उन चेहरों को 
जो उसे वाकायदा घूर रहे होते हैं
खामोश रहते हुए।
महानगर बसता है
इन बस्तियों की संकरी
गलियों में भी
जहां
भूख
के मायने बदल रहे हैं 
जहां भूख
अक्सर
बच्चों की पैदाईश का सबब हो जाया करती है। 
सोचता हूं
ऐसी संकरी गलियों की चीख
कभी
बहरा कर पाएगी
बेज़मीर सियासतदारों को। 
खैर,
यहां
केवल रात होती है
सुबह
और 
सुबह की उम्मीद
यहां 
केवल
फरेब है।
यहां 
उम्मीदें 
अगले ही पल
पिघल जाती हैं
केवल
जिस्म बचते हैं
जो घूरते हैं
घूरते हैं 
और केवल घूरते हैं...। 





21 comments:

  1. Replies
    1. बहुत आभार आपका मनोज जी।

      Delete
  2. यहां
    जिंदगी
    एक मैली गटर से आरंभ होती है
    और
    उसी मैली गटर के
    किनारे कहीं
    दम तोड़ देती है।
    ओह!!!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना...
    सही कहा ऐसी संकरी गलियों में महानगर बसता है
    सच यही है हमारे देश का कटु सत्य...
    ऐसा अंधेरा जो कभी छँटने का नाम भी नहीं लेता
    पेट की अग्नि को शान्त करने के लिए ये कुकृत्य तक करते हैं...
    बहुत ही हृदयविदारक शब्दचित्र उकेरा है आपने।
    काश कभी इन तंग गलियारों में भी उजाला हो ।
    आपके लेखन देश के किन्ही ऐसे रहनुमाओं तक पहुँचे जो वहाँ वोट और शोषण छोड़ उनके विकास में योगदान दे...।

    ReplyDelete
  3. सुधा जी बहुत ही गहरा दर्द है, बहुत सी जिंदगी ऐसी हैं जो दर्द लेकर पैदा होते हैं और वही दर्द उनका जीवन ले लेता है....। अब तक कुछ हुआ नहीं...जिसे बदलाव कहा जाए...ऐसी बस्तियां और ऐसे दर्द कौन देखना चाहेगा...लेकिन वहां भी जिंदगी श्वास लेती है। आभार आपका

    ReplyDelete
  4. मार्मिक कटु सत्य उकेरा है आपने।
    इन्ही गलियों की नींव पर महानगरों की इमारत टिकी है।
    गहन चिंतन से उपजी बेहतरीन रचना सर।

    प्रणाम सर।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत आभारी हूं आपका श्वेता जी। सच कितना कुछ छूट जाता है हमारी नजरों से क्योंकि हम अपनी बुनी हुई दुनिया में ही जीते रहते हैं...। बहुत आभार आपका।

      Delete
  5. बेहतरीन अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका डॉ. शरद मैम।

      Delete
  6. लाजवाब रचना संदीप जी,बहुत सारगर्भित और मार्मिक संदर्भ उठाया है, आपने। नमन इस भावपूर्ण अभिव्यक्ति को।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी...सच में उस बस्ती कौन जाना चाहता है जहां आपको केवल दर्द ही दिखाई और सुनाई दे...लेकिन वह बस्ती सच है, हमारी इस धरती पर।

      Delete
  7. कड़वी सच्चाई व्यक्त करती बहुत सुंदर रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका ज्योति जी।

      Delete
  8. कड़वी सच्चाई,महानगरों की आलिशान बंगलों से परे जब ऐसी दुर्दशा वाली जिंदगियाँ देखने को मिलती है तो रूह काँप जाती है।
    बेहद मार्मिक सृजन संदीप जी।,सादर नमन आपको

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका कामिनी जी...सच बेहद सख्त होता है, बहुत सख्त। सभी उसे पसंद नहीं करते लेकिन उसका उपयोग ये राजनीति हमेशा करती आई है, उन्हें छलती आई है।

      Delete
  9. मर्मस्पर्शी रचना आदरणीय।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभार आपका अनुराधा जी।

      Delete
  10. बहुत आभारी हूं आपका यशोदा जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए बहुत बहुत आभार।

    ReplyDelete
  11. महानगर की ये बस्तियां और वहां रहने वालों की ज़िंदगी पर कटु सत्य लिखा है । विचारणीय रचना ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी बहुत आभारी हूं आपका संगीता जी।

      Delete
  12. बहुत कटु सत्य कहती हुई सुन्दर रचना।

    ReplyDelete

कागज की नाव

कागज की नाव इस बार रखी ही रह गई किताब के पन्नों के भीतर अबकी बारिश की जगह बादल आए और आ गई अंजाने ही आंधी। बच्चे ने नाव सहेजकर रख दी उस पर अग...