महानगर की
बंद गलियों के
बहुत अंदर
कहीं
पलती है
बेबसी
किसी फूटे हुए
पाइप से
रिसते हुए
नाले के मैले पानी के बीच
चरमराई जिंदगी
रोटी को
ही
भूगोल कहने लगी है।
चीखती है
पूरी ताकत से
हुकुमरां के सामने।
आवाज़
कभी भेद नहीं पाती
गरीबी की उन संकरी गलियों
को।
हुकमरां
आते रहे, जाते रहे
गलियां संकरी होकर
अपने में ही धंसती गईं
किसी वृद्धा के
पेट
की अंतड़ियों की भांति
जिसकी भूख
खत्म हो जाती है
बचती है
केवल
धूरती हुई अस्थियां।
मैं
उन बस्तियों पर सच सुनने वालों
और
खीसे निपारने वालों को
आईना दिखाना चाहता हूं
कि
यहां
जिंदगी
एक मैली गटर से आरंभ होती है
और
उसी मैली गटर के
किनारे कहीं
दम तोड़ देती है।
चीखता हूं मैं भी
उस दिन
जब
गटर पर जीने वालों
के बीच
उम्मीद लेकर
कोई
नागैरत पहुंचता है
तब देखता हूं
उन चेहरों को
जो उसे वाकायदा घूर रहे होते हैं
खामोश रहते हुए।
महानगर बसता है
इन बस्तियों की संकरी
गलियों में भी
जहां
भूख
के मायने बदल रहे हैं
जहां भूख
अक्सर
बच्चों की पैदाईश का सबब हो जाया करती है।
सोचता हूं
ऐसी संकरी गलियों की चीख
कभी
बहरा कर पाएगी
बेज़मीर सियासतदारों को।
खैर,
यहां
केवल रात होती है
सुबह
और
सुबह की उम्मीद
यहां
केवल
फरेब है।
यहां
उम्मीदें
अगले ही पल
पिघल जाती हैं
केवल
जिस्म बचते हैं
जो घूरते हैं
घूरते हैं
और केवल घूरते हैं...।