मैं पूछ बैठा
बस्ती में
क्या प्रेम
बसता है
शरीर में
मन में
आत्मा में
या फिर
केवल शरीरों का एक लबाजमा है
बस्ती की काया।
तपाक से उत्तर आया
एक थके हुए अधेड़ का
प्रेम
तंग गलियों में
आकर
शरीर हो जाया करता है।
प्रेम
टूटे छप्परों में
देह पर
केंचूएं सा रेंगता है
और
हर रात
हारकर
सीलन वाली
दीवारों पर
चस्पा हो जाता है
देह की
थकी हुई गंध बनकर।
प्रेम
बस्ती की
घूरती आंखों में
कई बार
तार-तार हो जाया करता है
जिस्मों से झांकती मजबूरियों में।
प्रेम
को बस्ती में
कोई नाम नहीं दिया जाता।
प्रेम
यहां बेनाम होकर
उम्र दर उम्र
बूढ़ा होता रहता है
जिस्म की गर्मी
के
पिघलने के साथ।
यहां के प्रेम पर
कोई
कविता नहीं होती
यहां
प्रेम पर
कोई शब्द नहीं होते
यहां
केवल ख्वाहिशों का जंगल है
जो
सुबह से रात तक
थकन का एक स्याह
बादल बनकर
बरस जाता है
आत्मा को
पैरों से खूंदता हुआ।
सच हमारे यहां तो
प्रेम
ऐसा ही होता है।
प्रेम यहां
एक सख्त
चट्टान है
जो हर तरह की चोट
सहकर
धीरे -धीरे टूटता है
अंदर ही अंदर
एक शरीर के
पत्थर हो जाने तक।
वाह! बहुत सुंदर।
ReplyDeleteजी बहुत आभार आपका विश्वमोहन जी...।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-0६-२०२१) को 'आख़री पहर की बरसात'(चर्चा अंक- ४१०७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार आपका अनीता जी। मेरी रचना को सम्मान देने के लिए साधुवाद।
Deleteप्रेम एक सख्त चट्टान है सूखती है जी धीरे धीरे अन्दर ही अन्दर ...
ReplyDeleteबहुत खूब ... नए अंदाज़ से प्रेम को परिभाषित किया है ...
आभारी हूं आपका आदरणीय नासवा जी।
ReplyDeleteअंतर्मन में उतरती बहुत सुंदर रचना,
ReplyDeleteआभारी हूं आपका
Deleteप्रेम यहां
ReplyDeleteएक सख्त
चट्टान है
जो हर तरह की चोट
सहकर
धीरे -धीरे टूटता है
अंदर ही अंदर
एक शरीर के
पत्थर हो जाने तक।
वाह अति सुंदर ।
आज प्रेम पर चर्चा ज़ियादा है । शायद कमी है आजकल ।
सादर
आभारी हूं आपका
Deleteप्रेम यहां
ReplyDeleteएक सख्त
चट्टान है
जो हर तरह की चोट
सहकर
धीरे -धीरे टूटता है
अंदर ही अंदर
एक शरीर के
पत्थर हो जाने तक।
सही कहा प्रेम भी आजकल आवश्यकतानुसार बदलता है और ना भी बदला तो हश्र वही होता जो एक चट्टान का...बस टूटकर बिखरना...।
लाजवाब चिंतनपरक सृजन।
आभारी हूं आपका
Deleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteआभारी हूं आपका
Deleteखूबसूरत लेखन
ReplyDeleteआभारी हूं आपका
Delete"प्रेम एक सख्त चट्टान है सूखती है जी धीरे धीरे अन्दर ही अन्दर "
ReplyDeleteवाह !! बहुत खूब,प्रेम को कुछ अलग तरह से परिभाषित किया है आपने,सादर नमन
कामिनी जी बहुत बहुत आभार आपका...।.
Deleteसच है कि प्रेम परिस्थितियों के अनुसार ही व्याखित होता है । किसी बस्ती की गलियों में प्रेम क्या होता है उसकी विस्तृत व्याख्या की है । और हर बात सलीके से और बेबाक रखी है ।
ReplyDeleteप्रेम यहाँ बेनाम हो कर उम्र दर उम्र बूढ़ा होता रहता है ।
गज़ब की अभिव्यक्ति ।
आपका बहुत बहुत आभारी हूं संगीता जी।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteअद्भुत!!
ReplyDeleteआपकी विषय पर गहनता अप्रतिम ही नहीं अद्वितीय है ।
हृदय स्पर्शी सृजन।
भाव पक्ष गहन, अभिनव शैली।