मैं पूछ बैठा
बस्ती में
क्या प्रेम
बसता है
शरीर में
मन में
आत्मा में
या फिर
केवल शरीरों का एक लबाजमा है
बस्ती की काया।
तपाक से उत्तर आया
एक थके हुए अधेड़ का
प्रेम
तंग गलियों में
आकर
शरीर हो जाया करता है।
प्रेम
टूटे छप्परों में
देह पर
केंचूएं सा रेंगता है
और
हर रात
हारकर
सीलन वाली
दीवारों पर
चस्पा हो जाता है
देह की
थकी हुई गंध बनकर।
प्रेम
बस्ती की
घूरती आंखों में
कई बार
तार-तार हो जाया करता है
जिस्मों से झांकती मजबूरियों में।
प्रेम
को बस्ती में
कोई नाम नहीं दिया जाता।
प्रेम
यहां बेनाम होकर
उम्र दर उम्र
बूढ़ा होता रहता है
जिस्म की गर्मी
के
पिघलने के साथ।
यहां के प्रेम पर
कोई
कविता नहीं होती
यहां
प्रेम पर
कोई शब्द नहीं होते
यहां
केवल ख्वाहिशों का जंगल है
जो
सुबह से रात तक
थकन का एक स्याह
बादल बनकर
बरस जाता है
आत्मा को
पैरों से खूंदता हुआ।
सच हमारे यहां तो
प्रेम
ऐसा ही होता है।
प्रेम यहां
एक सख्त
चट्टान है
जो हर तरह की चोट
सहकर
धीरे -धीरे टूटता है
अंदर ही अंदर
एक शरीर के
पत्थर हो जाने तक।