मुझे भी।
तुम्हें
उसे रौंदकर
बनाना है
चीत्कार करता
महत्वाकांक्षी नगर।
मुझे
केवल जंगल चाहिए
जिसमें
हमारे जंगल का प्रतिबिंब
नजर न आए।
हमारा
जंगल तुम रख लो
जिसमें
केवल सूखा है
चीख हैं
और कुछ
अस्थियां
सूखी हुई
उन वन्य जीवों की
जिनसे हम छीन चुके हैं
उनका जंगल...।
तुम
जंगल
को नहीं समझ सकते
क्योंकि
हम
अमानवीय और हिंसक हैं।
छोड़ दीजिए
उनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।
छोड़ दीजिए
ReplyDeleteउनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।
आभार आपका कविता जी...।
Deleteकाश , वन्य जीव कुछ कह पाते । आज तो सच ही जानवर मनुष्य से ज्यादा सभ्य नज़र आता है ।
ReplyDeleteबेहतरीन
आभार आपका संगीता जी...
Deleteआपकी लिखी रचना सोमवार 26 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी...। मेरी रचना को मान देने के लिए...। साधुवाद
Deleteआभार आपका रवीन्द्र जी...।
ReplyDeleteछोड़ दीजिए उनका जंगल..जिसे ज़बरदस्ती अपना बनाने पर तुले हैं। बहुत सुन्दर और सही बात कही है आपने। बधाई आपको। सादर।
ReplyDeleteवीरेंद्र जी आभार आपका...।
Deleteछोड़ दीजिए
ReplyDeleteउनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।
बहुत ही अच्छे विचारों और उद्देश्य से लिखी गई बहुत ही बेहतरीन रचना!
बहुत आभार मनीषा जी...।
Deleteजंगली कहलाने वाले भी
ReplyDeleteअनुशासनबद्ध हैं
पर सचमुच
विचारणीय हैं
हम मनुष्यों के
नियम और आचरण
अगर चाहिए
पीढ़ियों के लिए
संतुलित भविष्य।
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आपकी रचनाएँ
जीवंत संवाद करती हैं।
प्रणाम सर
सादर।
बहुत आभार आपका श्वेता जी...।
Deleteछोड़ दीजिए
ReplyDeleteउनका जंगल
जिसमें
वन्य जीव
गढ़ते हैं
एक सभ्य जीवन...।
बहुत खूब..!!
आभार आपका उषा जी...।
Deleteछोड़ दीजिए उनका जंगल...
ReplyDeleteमार्मिक अपील!
आभार आपका वाणी जी...।
Deleteउद्वेलित करता सृजन ।
ReplyDeleteआभार आपका अमृता ती...।
Deleteबेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteसादर
आभार आपका अनीता जी..।।
Deleteवन्य जीवों का सभ्य जीवन
ReplyDeleteवाह!!!
बहुत सुन्दर विचारणीय सृजन।
आभार आपका सुधा जी...।
Deleteबहुत बढिया संदीप जी | जीवों का सभ्य जीवन-- मानव के कथित सभ्य जीवन से हजारों गुना अच्छा होगा क्योंकि अनबोल प्राणियों में अभी भी जीवन का कायदा मौजूद है | संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteआभार आपका रेणु जी...।
Deleteक्या सच में विकार अमानवीय है? एक ढर्रे पर लिखी जाती कथा। यदि नगर इतने अमानवीय है तो वे बस्ते क्यूँ हैं ? यदि जंगल से इतना प्रेम है तो महानगर की ओर पलायन क्यूँ होता है? केवल भूख के लिए नहीं। सुविधा के लिए भी। चिकित्सा के लिए भी। एक ढप की कथा, अधूरी ही होती है। सिक्के के भी 2 पहलू होते हैं।
ReplyDeleteमेरा अपना चिंतन है... जरूरी नहीं यह सभी का हो...।
Deleteऐसा लगता है कि ये टिप्पणीकार आपकी कविता के वास्तविक भाव को समझ ही नहीं सके शर्मा जी। आपने सही बात कही है। जंगल उन्हीं के हैं जो उनके वासी हैं, उन्हें सम्भालते हैं और अपने घर की तरह संरक्षित रखते हैं। निजी स्वार्थ के दासों को कोई अधिकार नहीं है उन पर अतिक्रमण करने और उनका अनुचित दोहन करते हुए उनके वास्तविक अधिकारियों (आदिवासियों, वनस्पतियों तथा वन्य प्राणियों) को उनसे वंचित करने का। स्वार्थी एवं लोभी तथाकथित सभ्य लोगों से कहीं अधिक सभ्य हैं वे।
Deleteअपनी अपनी समझ है और अपना अपना चिंतन...। आभार आपका जितेंद्र माथुर जी...।
Deleteबिल्कुल सटीक खाका खींचती,जंगल की संवेदना को व्यक्त करती खूबसूरत कविता।
ReplyDeleteआभार आपका जिज्ञासा जी...।
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