प्रेम
ऐसा ही होता है
अंदर से
बेहद शांत।
जैसे कोई
रंगों के महोत्सव
के
बीच
किसी अधखिले फूल की
प्रार्थना।
कविताएं मन तक टहल आती हैं, शब्दों को पीठ पर बैठाए वो दूर तक सफर करना चाहती हैं हमारे हरेपन में जीकर मुस्कुराती हैं कोई ठोर ठहरती हैं और किसी दालान बूंदों संग नहाती है। शब्दों के रंग बहुतेरे हैं बस उन्हें जीना सीख जाईये...कविता यही कहती है।
सुना है गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं तापमा...
बहुत बढ़िया संदीप जी। प्रेम के जितने रुप उतनी परिभाषाएं। सुन्दर मनोरम, प्रेमाभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका रेणु जी...आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 07 अक्टूबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय रवींद्र जी।
Deleteबहुत सुंदर और सच!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका मनीषा जी।
Deleteसच है..किसी अधखिले फूलों की प्रार्थना..
ReplyDeleteबहुत सुंदर क्षणिका।
जी बहुत बहुत आभार आपका पम्मी जी।
Deleteसुंदर भावपूर्ण सृजन
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।
Deleteवाह!सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका शुभा जी।
Deleteकविता नहीं, एक फूल-सा अहसास.
ReplyDeleteअभिनन्दन !
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका सरिता जी।
Deleteबहुत सुंदर सृजन आदरणीय ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका दीपक जी।
Deleteएहसासों की अति सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteसुंदर, सार्थक रचना !........
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteजी बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी।
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