मुझे याद है
आज भी
तुम्हारी आंखों में
उम्र के सूखेपन के बीच
कोई स्वप्न पल रहा है
कोई
श्वेत स्वप्न।
तुम जानती हो
कोरों में नमक के बीच
कोई स्वप्न
कभी भी
खारा नहीं होता।
अक्सर
तुम स्वप्न को घर कहती हो
और
मैं
घर को स्वप्न।
कितना मुश्किल है
घर को स्वप्न कहना
और
कितना सहज है
स्वप्न को घर मानना।
मैं जानता हूं
तुम्हारी आंखों की कोरों के बीच
जो नमक है
वही
घर है
नींव है
जीवन है
और गहरा सच।
तुम अक्सर कहती हो
घर नमक नहीं हो सकता
हां
सच है
लेकिन
आंखें नमक हो सकती हैं
जीवन भी नमक हो सकता है
और
गहरा मौन भी।
एक उम्र के बाद
जब जीवन का सारा खारापन
सिमटकर
कोरों पर हो जाता है जमा
तब
जिंदगी
बहुत साफ दिखाई देती है
एकदम
तुम्हारे स्वप्न की तरह
जिसमें
तुम हो
मैं हूं
एक घर है
और
नमक झेल चुकी
तुम्हारी ये
पनीली हो चुकी आंखें।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 05 अक्टूबर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका यशोदा जी..।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-10-2021) को चर्चा मंच "पितृपक्ष में कीजिए, वन्दन-पूजा-जाप" (चर्चा अंक-4209) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी बहुत आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी...।
ReplyDeleteसटीक अभिव्यक्ति ,जीवन में स्वप्नों की बात हर कोई कहां समझता है, सुंदर बात कही है आपने ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत बढ़िया लिखा आपने
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका सुजाता जी।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी।
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका
Deleteभावनाओं से ओतप्रोत बहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका मनीषा जी।
Deleteवाह!
ReplyDeleteअद्भुत अभिनव।
जी बहुत बहुत आभार आपका कुसुम जी।
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