कितना सच था
बचपन
सब कुछ कितना खरा सा
निक्कर की फटी जेब में
दुनिया समा जाया करती थी
कागजों में कागज लपेट
छुपा ली जाती थी
बचपन की वो मीठी सी गोली।
बेशक मिट्टी में खेलते थे
और
हाथ उसी शर्ट से
कभी
दोस्त की
शर्ट से साफ कर लेते थे
न कोई चिल्लाता था
न कोई चीखता था।
शर्ट के दाग मायने नहीं रखते थे
हां
चुभती थी
दोस्तों की कभी-कभार
गुमसुम हो जाने की आदतें।
साथ जाने कितनी बार भीगे
गीली मिट्टी में फिसले
पैर डालकर मिट्टी में
कच्चे घर बनाए
उनके आसपास मिटटी की ही
बागड बनाई
सब कुछ जैसे अभी-अभी बीता हो।
वह चटख रंग के चित कबरे कपड़े
वह
तेल से चिपकु जैसे बाल
वह नई गेंद की खुशी
वह दोस्तों का साथ
वह फटी शर्ट में चौड़ी सी तुरपाई
जिसमें मां की बहुत सी बेबसी
और
पिता की चिंता टांक दी जाती थी
तब कपडे़ रोज कहां आते थे
हां
जिस दिन आते थे त्यौहार से खिलखिलाते थे।
वह
घर की मिठाई
में मां की मुस्कान
पिता का प्यार
कितना अधिक था
सच
बचपन कभी बीतता नहीं है
वह साथ चलता है
उम्रदराज होकर
दोबारा फलता है
और
तभी तो
उम्रदराज मन भी उन धुंधली आंखां
नजर चुराकर कंचे पर
लगा ही देता है निशाना
कि
काश बचपन सा सटीक लग जाए
और
कूद जाएं दोस्तों की भीड़ पर।
बचपन की घड़ी भी बहुत धीमी चलती थी
लेकिन
उम्र की घड़ी तेज ही चलती रही
और
आज हम घर की बालकनी में
बैठे मिट्टी में पैर रखने से
डरने लगे हैं
कहीं एडियां न फट जाएं...।
वाक़ई कैसी विडंबना है
ReplyDeleteजी वाकई।
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