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सोमवार, 27 नवंबर 2023

कागज की नाव


कागज की नाव

इस बार

रखी ही रह गई

किताब के पन्नों के भीतर

अबकी

बारिश की जगह बादल आए

और

आ गई अंजाने ही आंधी।

बच्चे ने नाव

सहेजकर रख दी

उस पर अगले वर्ष की तिथि लिखकर

जो उसे

पिता ने बताई

यह कहते हुए

काश कि 

अगली बारिश जरुर हो। 

शनिवार, 7 अक्टूबर 2023

आदमी की पीठ पर

 खरापन इस दौर में

एकांकी हो जाने का फार्मूला है

सच 

और

सच के समान कुछ भी

यहां हमेशा 

नंगा ही नजर आएगा। 

फटेहाल सच

और

भयभीत आदमी

एक सा नजर आता है।

आदमी की पीठ पर

आदमीयत है

और पर

हजार सवाल। 

भयभीत आदमी हर पल 

हो रहा है नंगा।

नग्नता 

इस दौर में 

खुलेपन का तर्क है। 

तर्क और अर्थ के बीच

आम आदमी

खोज रहा है 

अपने आप को

उस नग्नता भरे माहौल में। 

एक दिन

पन्नों पर केवल 

नग्नता होगी

तर्कों की पीठ पर 

बैठ 

भयभीत और भ्रमित सी। 

तब

आम आदमी

नौंच रहा होगा उन तर्कों के पीछे 

छिपी नपुंसकता को

छलनी-छलनी हो जाने तक। 

आम आदमी

कई जगहों से फटा हुआ है

उधड़ा सा

अकेला 

और 

गुस्सैल। 


शनिवार, 23 सितंबर 2023

नदी से रिश्ता

 


नदी किनारे नरम रेत पर

अब भी चस्पा है

बचपन

और

मेरी अबोध उम्र के निशान।

नदी भी तब

अबोध हो जाया करती थी

बार-बार

मेरे पैरों में पानी के मोटे-मोटे छींटे मार

लहरों में खिलखिलाती थी।

किनारा कच्चा था

लेकिन 

नदी से उसका रिश्ता 

मजबूत था

कभी भी नदी ने 

उस किनारे को पीछे नहीं धकेला

हर बार

उसे छूती हुई 

गुजर जाती।

उस किनारे कहीं 

नदी की रेत में 

एक घरोंदा बनाया था

जो आज तक 

है

मेरे मन, भाव, शब्दों और नदी के भरोसे में।

मेरे पदचिन्ह 

नदी के मुहाने तक चस्पा हैं

उसके बाद नदी है

नदी है

और 

मेरी आचार संहिता।


गुरुवार, 14 सितंबर 2023

नमक होती जा रही है नदी

 तपिश के बाद

नदी की पीठ पर

फफोले हैं

और 

खरोंच के निशान

हर रात

खरोंची जाती है

देह 

की रेत 

रोज हटाकर 

खंगाला जाता है

गहरे तक.

हर रात 

ऩोंची गई नदी

सुबह दोबारा शांत बहने लगती है

अपने जख्मों में दोबारा

रेत भरती है.

नदी की आत्मा 

तक 

गहरे निशान हैं

छूकर देखिएगा

नदी रिश्तों में नमक होती जा रही है.

एक दिन 

खरोंची नदी 

पीठ के बल सो जाएगी 

हमेशा के लिए

तब तक हम 

सीमेंट से जम चुके होंगे

अपने भीतर पैर लटकाए.

रविवार, 10 सितंबर 2023

ताकि बारिश होती रहे



रिसता रहा 
कच्चा घर 
टपकती रही
छत 
वह बचाती रही 
सोते हुए बच्चों को
ढांकती रही 
घर का जरूरी सामान
भीग चुकी चादर मोड़कर 
लगाती रही पोंछा
चूल्हे के ऊपर बांध दी तिरपाल
बचाती रही 
घर की दीवार पर टंकी
यादों को
बच्चों की किताबों को
घर में रखे मुट्ठी भर राशन को
घर की ओर झुकती दीवार पर 
देती रही भारी सामान का टेका
कवेलूओं को लाठी से खिसकाकर
रोकती रही 
घर का खतरा
जद्दोजहद के बाद
घर के दरवाजे
खोल 
थकी सी बाहर निकली
झुककर किया 
बारिश को प्रणाम
कहा 
खूब बरसो 
ताकि फल फूल सके धरती,जीव और इंसान...

गुरुवार, 31 अगस्त 2023

हजार दरकन, योजन सूखा



नदी

से रिश्ता

अब 

सूख गया है

या 

नदी के साथ

बारिश के दिनों वाले

मटमैले पानी के साथ

बहकर 

समुद्र के पानी में मिलकर

खारा हो गया है। 

नदी से रिश्ते में देखे जा सकते हैं

हजार दरकन

और

योजन सूखा। 

एक दिन 

रिश्ते के बेहतर होने की आस ढोती हुई नदी

समा जाएगी 

हमेशा के लिए पाताल में। 

नदी 

और

हमारे रिश्ते में

अब भी

उम्मीद की नमी है

चाहें तो 

बो लें कुछ अपनापन

रिश्ता

और बहुत सी नदी। 

रविवार, 27 अगस्त 2023

बचपन की घड़ी


कितना सच था
बचपन
सब कुछ कितना खरा सा
निक्कर की फटी जेब में
दुनिया समा जाया करती थी
कागजों में कागज लपेट
छुपा ली जाती थी
बचपन की वो मीठी सी गोली। 
बेशक मिट्टी में खेलते थे
और
हाथ उसी शर्ट से 
कभी 
दोस्त की 
शर्ट से साफ कर लेते थे
न कोई चिल्लाता था
न कोई चीखता था।
शर्ट के दाग मायने नहीं रखते थे
हां
चुभती थी
दोस्तों की कभी-कभार 
गुमसुम हो जाने की आदतें। 
साथ जाने कितनी बार भीगे
गीली मिट्टी में फिसले
पैर डालकर मिट्टी में
कच्चे घर बनाए
उनके आसपास मिटटी की ही
बागड बनाई
सब कुछ जैसे अभी-अभी बीता हो। 
वह चटख रंग के चित कबरे कपड़े
वह 
तेल से चिपकु जैसे बाल
वह नई गेंद की खुशी
वह दोस्तों का साथ
वह फटी शर्ट में चौड़ी सी तुरपाई
जिसमें मां की बहुत सी बेबसी
और
पिता की चिंता टांक दी जाती थी
तब कपडे़ रोज कहां आते थे
हां 
जिस दिन आते थे त्यौहार से खिलखिलाते थे।
वह 
घर की मिठाई
में मां की मुस्कान
पिता का प्यार
कितना अधिक था
सच
बचपन कभी बीतता नहीं है
वह साथ चलता है
उम्रदराज होकर
दोबारा फलता है
और
तभी तो
उम्रदराज मन भी उन धुंधली आंखां
नजर चुराकर कंचे पर 
लगा ही देता है निशाना
कि
काश बचपन सा सटीक लग जाए
और 
कूद जाएं दोस्तों की भीड़ पर।
बचपन की घड़ी भी बहुत धीमी चलती थी
लेकिन 
उम्र की घड़ी तेज ही चलती रही
और 
आज हम घर की बालकनी में
बैठे मिट्टी में पैर रखने से
डरने लगे हैं
कहीं एडियां न फट जाएं...। 


 

शुक्रवार, 25 अगस्त 2023

हां नदी अंदर से नहीं पढ़ी गई

 


नदी

अंदर से जानी नहीं गई

केवल

सतही तौर पर देखी गई।

उसकी भीतरी हलचल

का कोई साझीदार नहीं है

केवल

जलचरों के।

नदी बहुत भीतर

कुछ निर्मल है

और

बहुत सी बेबस भी।

वह

उसकी आत्मा का नीर

उन जलचरों के लिए है

जो नदी के दर्द पर

उसकी कराह में शामिल होते हैं।

सतही पानी नदी की विवशता है

सतही बातों के बीच

नदी बहुत बेबस है।

वह सिमट रही है

प्रवाहित होते हुए भी

अपने भीतर

जलचरों को समेटते हुए

उसका आत्म नीर

घटता जा रहा है

और घटते जा रहे हैं

जलचर।

हां नदी अंदर से नहीं पढ़ी गई

केवल

सतही विकारों और किनारों को लिखा गया

उसके हर दिन के रुदन को

जलचरों को घटते निर्मल नीर को

बदबूदार सतह को ढोने की विवशता को

कहा पढ़ा जा सका।

नदी गहरे कहीं-कहीं

सहती है

कालिख सा बदबूदार पानी

जिससे जल का निर्मल भाव

नदी की आत्मा

और

जलचर मर जाते हैं।

क्या पढ़ पाए हैं हम

नदी को

उसके दर्द को

उसकी इच्छा को

उसके सिमटते भविष्य पर

क्या महसूस कर पाए हैं

उसके मौन को ?

नदी कहां पढ़ी गई

वह तो

केवल

उलीची गई

खूंदी गई

विचारों की बदबूदार साजिशों में।

कभी पढ़ो

तो पाओगे

किनारों पर गहरे

नदी के रुदन का नमक मिलेगा

जो हर रोज बढ़ रहा है

और

बढ़ रही है

हमारी और नदी के बीच

रिश्तों में खाई। 



गुरुवार, 24 अगस्त 2023

हां, उम्रदराज़ पिता ऐसे ही तो होते हैं


उम्रदराज़ पिता ऐसे ही होते हैं
कांपते हाथों 
फेर ही देते हैं
हारते बेटे के सिर पर हाथ।
धुंधली छवियों के बीच
देख ही लेते हैं
बच्चों के माथों पर चिंता की लकीरें
हां, उम्रदराज़ पिता ऐसे ही होते हैं।
भागती हुई जिंदगी से कदमताल करते हुए
केवल रात को ही थकते हैं
और
सुबह सबसे पहले उठ जाते हैं
उम्रदराज़ पिता।
घर में खुशियों को बोते हैं
विचारों की उधडन की करते हैं तुरपाई
विवादों को टालते हैं
और
अधिकांश गलतियां ओढ़ लेते हैं खुद ही
हां, ऐसे ही होते हैं उम्रदराज़ पिता।
सबसे आखिर में पढ़ते हैं अखबार
और
पसंदीदा खबर सुनाने 
पूरा दिन करते हैं इंतजार 
पत्नी के सुस्ताने वाली घड़ी का।
पहले हमेशा गुमसुम रहने वाले पिता
अब  
जरुरी मौकों पर मुस्कारते हैं। 
किसी भी आहट से पहले
जाग जाते हैं
पूरा दिन घर को मंथते हैं
अपनों को जीते हैं
जिंदगी के नये पुराने दिनों को यादों में सीते हैं
हां ऐसे ही तो होते हैं उम्रदराज़ पिता।
अक्सर खाली जेब बाजार चले जाते हैं 
उम्मीदें लेकर 
लौट आते हैं पिता
बिना पूछे ही बाजार की कुछ मनमाफिक 
गढ़ी हुई कहानियां सुनाते हैं पिता।
किसी पुराने दोस्त के मिलने
और 
मिलकर बतियाने को बताते हैं नज़ीर
ताकि घर समझें और जीना सीख जाएं
जीवन की एक शानदार तरकीब।
हां ऐसे ही तो होते हैं उम्रदराज़ पिता।
खाली समय में
कभी-कभी
अपनी कुर्सी, चश्मे और पुरानी पुस्तकों से 
भी बतियाते हैं पिता।
एक उम्र को जीकर पिता होना 
और 
उम्रदराज होकर भी 
घर को कांधे पर टांगे रखना
हां उम्रदराज़ पिता ऐसे ही तो होते हैं।




 

तो जिंदगी आसान है

 जीने के लिए  कोई खास हुनर नहीं चाहिए इस दौर में केवल हर रोज हर पल हजार बार मर सकते हो ? लाख बार धक्का खाकर उस कतार से बाहर और आखिरी तक पहुं...