चेहरे
और
चेहरों की
भीड़
के बीच
सच
आदमी
की
आदत
नहीं रहा अब।
सच
केवल
घर के
आंगन
में बोया जाने वाला
बोनसाई
पौधा है
जो
बाहरी खूबसूरती का
चेहरा है।
बोनसाई
हो जाना
सच की नहीं
आदमी के
सख्त मुखौटे
की मोटी सी दरार है।
सच
दरारों में
ही पनपता है
अनचाहे पीपल की तरह...।