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Friday, June 11, 2021

उन अधनंगे बच्चों के बीच


सोचता हूं 

बचपन की वह 

कागज की नाव 

कितनी भरोसेमंद थी

आज तक तैर रही है

मन में कहीं किसी कोने में।

बाहर बारिश थी

बहुत तेज

जैसे कोई बुजुर्ग 

झुंझला रहा हो

खीझ रहा हो

अपनों की बेरुखी के बाद। 

मैं 

खिड़की पर पहुंचा

देख रहा था

घर के सामने वाली बस्ती में

कुछ अधनंगे बच्चे

झूम रहे थे 

उस तेज बारिश में

परवाह को 

ठेंगा दिखाते हुए। 

मैं उन्हें देखता रहा 

और

भीगता रहा 

उनके साथ घंटों

उस खिडकी के इस पार।

नजदीक ही 

एक चीख ने मेरा

बारिश और बचपन की स्मृति से

वार्तालाप तोड़ दिया।

आवाज कर्कश थी

जानते हो

बारिश है भीग जाओगे

बीमार हो जाओगे

और मैं मुस्कुराया 

और दोबारा

बचपन और बारिश से 

वार्तालाप करने 

अपने आप को ऊंगली पकड़

ले आया उसी खुले मैदान की 

बस्ती के 

उन अधनंगे बच्चों के बीच।

अबकी 

मैं कल्पना में

एक कागज की नाव लेकर 

जाना चाहता था

उन अधनंगे बच्चों के बीच

बहुत सारी 

नावों को भरकर

ये कहने कि

छोड़ दो ना तुम भी

ये नाव

देखना

तुम्हें ये तब भी 

बारिश से भिगोएगी जब 

अक्सर तुम सूख चुके होगे

इस 

दुनिया की रस्मों में

जीते जीते।

मैं 

कोट 

को उतार

कागज की नाव दोबारा बनाने लगा

नाव

वैसी ही बनी

जैसी बचपन में थी

सोचता हूं 

इस बारिश

इस नाव जैसी ढेर सारी नाव

उसमें

उम्मीदें

खुशियां

जिंदगी रखकर दे ही दूं 

उन बच्चों को। 

मैं 

नाव देख खुश हो रहा था

और वे

भीगते हुए नाचकर।

सोचने लगा

क्या फर्क है

इस नाव 

और 

उस बचपन में

और 

वह नाव डायरी में रख ली।

अब 

जबकि 

उम्र 

शरीर और विचारों को 

वजनदार बना चुकी है

अब अक्सर देख लेता हूं

उस नाव को

छूकर

जो डायरी में रखी है

कुछ पीली सी

यादों को संजोती

जो 

विचारों में अब भी तैर रही है

बेखौफ

उन अधनंगे बच्चों की तरह।


 

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...