Followers

Showing posts with label अनछुई. Show all posts
Showing posts with label अनछुई. Show all posts

Thursday, July 28, 2022

वो गंध अनछुई सी

ये कुछ 
अपना सा है
बहुत सा तुमसा
बेशक बिखरा सा है
कुछ रंगों सा 
बेतरतीब
लेकिन अनछुआ। 
तुम्हें देना चाहता हूँ
बेशक 
बिखरा सा समय है
भरोसा रखो
ये 
महकेगा
बेशक इसकी गंध 
अनछुई है
ये गंध 
हमारे बीच कहीं ठहर गई है।
तुम्हें 
मैं अपने विचारों का आवरण 
देना चाहता हूँ 
बेशक सख्त है
उभरा सा। 
तुम्हें 
मैं समय का कोई कतरा भी 
देना चाहता हूँ 
हरा सा वो 
तुम सहेज लेना
हथेली की रेखाओं में। 
जहाँ 
उगता है
हमारा घर 
जहाँ अक्सर हम मिलते हैं
अनछुए से। 

संदीप कुमार शर्मा

ये हमारी जिद...?

  सुना है  गिद्व खत्म हो रहे हैं गौरेया घट रही हैं कौवे नहीं हैं सोचता हूं पानी नहीं है जंगल नहीं है बारिश नहीं है मकानों के जंगल हैं  तापमा...