हमें
नज़र नहीं आतीं
पेड़ों की अस्थियां
और उन पर रेंगते
समय की पीठ पर
हमारे कुचक्र।
हमें
नज़र नहीं आते
सूखे
पेड़ों के जिस्मों पर
कराहती कतरनें।
हमें
नज़र नहीं आती
उम्रदराज़ पेड़ों
की पिंडलियों की सूजन।
हमें नज़र नहीं आती
उनके
शरीर पर
अंकुरण का गर्भ होती
मिट्टी भरी छाल।
हमें नज़र
नहीं आता
वृक्ष और आदमी के बीच
अपंग होता रिश्ता।
ओह !
कितना कुछ
नहीं देखा
हमने अपने जीवन में..।
हमने देखे
केवल खिलती
कलियां
फूलों के रंग
उनकी खुशबू पर
बहकता भंवरा
आरी
कुल्हाड़ी
मकान
सड़क
सुविधाएं
अपने बरामदे
अपने
दालान
अपने बच्चे
अपना जीवन।
जंगल
को शहर बनाने
का सपना
और
भी बहुत कुछ...।
देखना
हमारी आवश्यकता नहीं
हमारी
होड़ है
अपने से
प्रकृति से
जंगल से...।
हम सब भाग रहे हैं
हमारे पीछे
शहर
फिर
हमारे कर्म
फिर
बेबस और बेसुध पीढ़ी...
काश
वो सब
देख लिया होता
कुछ ठहरकर...।